चोल वंश का इतिहास | history of chola dynasty |history of medieval India | मध्यकालीन भारत का इतिहास

Medieval History

चोल वंश का इतिहास

History of chola dynasty

प्रारंभिक चोल का इतिहास

प्रारंभिक चोल राजवंश का संस्थापक उर्वाहप्पहरें इलन जेत चेन्नी था। इसकी प्रारंभिक राजधानी पुहार थी। करिकाल प्रारंभिक चोल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण शासक था। इसे “जले हुए पैरों वाला” कहा गया है। अनुमानित किस शासक ने 190 ई में शासन किया था। करिकाल एक साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी शासक था। करिकाल ने उरेयूर को अपनी राजधानी बनाया था।

अपने शासन के आरंभिक वर्षों में इसने वन्नि नामक स्थान पर बेलरी तथा अन्य 11 शासकों को पराजित कर प्रसिद्धि हासिल की थी। उसकी दूसरी महत्वपूर्ण सफलता थी वह “वहेप्परनलई” के 9 छोटे-छोटे शासकों की संयुक्त सेना को पराजित किया था। उसने अपने शासनकाल में पांडय साम्राज्य एवं चेर साम्राज्य के शासकों को महत्वहीन कर दिया था। संगम साहित्य के अनुसार करिकाल ने कावेरी नदी के मुहाने पुहारपत्तन शहर (कावेरिपट्टनम) की स्थापना की थी।

संगम युग के इतिहास में इसे सबसे शक्तिशाली नौसेना रखने वाला शासक कहा गया है। “पट्टीनपप्पले” ग्रंथ के अनुसार करिकाल के समय में उद्योग तथा व्यापार उन्नत अवस्था में था। करिकाल ने पट्टीनपप्पले के लेखक को 1,60,000 स्वर्ण मुद्राएं उपहार में दी थी। करिकाल सात स्वरों का ज्ञाता था तथा वैदिक धर्म का अनुयाई था।

करिकाल के बाद उसके दो पुत्र नलंगिल्लित और नेदुंजलि के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ। कोकरकिला नामक कवि ने इस युद्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है।करिकाल के दो पुत्रों नलंगिल्लित और नेदुंजलि ने क्रमशः दो राजधानियों से अलग-अलग शासन किया बड़े पुत्र ने पुहार से तथा छोटे पुत्र ने उरेयर से शासन किया।

करिकाल के बाद अंतिम महान शासक नेडूजेलियन था उसने सफलतापूर्वक पांडय तथा चेरो के बीच के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। उसके मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई। उनकी प्रशंसा में संगम साहित्य में अनेक कविताओं का उल्लेख है। ईसा की तीसरी शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक चोलो का इतिहास अंधेरे में था, इस काल को चोल काल का अंधकार युग कहा जाता है पर नौवीं शताब्दी के मध्य में ही विजयालय ने चोल शक्ति को पुनः स्थापित किया।

परवर्ती चोल

चोल वंश की द्वितीय स्थापना 9वी शताब्दी में विजयालय द्वारा की गई थी। चोल वंश की प्रारंभिक राजधानी पुहर, ऊरेयूर (आधुनिक वरेयुर तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले में) तंजौर और अंत में गंगेकोंडचोलापुरम थी। चोल वंश का राजकीय चिन्ह शेर है जो उनके ध्वज पर आज भी देखा जा सकता है। चोल वंश की राजकीय भाषा तमिल और संस्कृत थी किंतु चोल राजाओं के अभिलेख तमिल, तेलुगु और संस्कृत भाषा में प्राप्त हुए हैं।

चोल वंश राजधानी

🌹 चोल वंश की प्रारंभिक राजधानी पुहर में थी। इसका आधुनिक नाम पूमपुहार है जो तमिलनाडु के माइलादुथूराई में अवस्थित है।

,🌹 चोल वंश की दूसरी राजधानी ऊरैयूर थी जो आज वरैयुर के नाम से जाना जाता है। यह तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले में है।

🌹 चोल वंश की तीसरी राजधानी तंजौर थी। इसका आधुनिक नाम तंजावूर है। तंजावूर को चावल का कटोरा भी कहा जाता है।

🌹 चोल वंश की अंतिम राजधानी गंगेकोंडचोलापुरम थी जो तिरुचिरापल्ली जिले में है।

चोल वंश का ऐतिहासिक स्रोत

अभिलेख

🌹 अशोकअभिलेख – अशोक के 2nd और 7th में अभिलेख – इस अभिलेख से चोल वंश के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिलती है।

🌹 तिरुवलंगाडू अभिलेख – यह राजेंद्र प्रथम का अभिलेख है, इसी से चोरों की उत्पत्ति के बारे में जानकारी मिलती है।

🌹 करेंदेय दानपत्र – यह राजेंद्र प्रथम का है।

🌹 तंजौर मंदिर लेख –यह अभिलेख राजाराज प्रथम का है। इससे राजाराज प्रथम की विजयो की जानकारी मिलती है।

🌹 तिरुवेंदीपुरम अभिलेख – यह अभिलेख राजाराज तृतीय का है। इसमें चोल वंश के उत्कर्ष का वर्णन किया गया है कि चोल वंश का इतना बड़ा साम्राज्य कैसे स्थापित हुआ।

🌹 मणिमंगलम अभिलेख – यह अभिलेख राजराज प्रथम का है इस अभिलेख में चोल वंश का श्रीलंका के विजय के बारे में उल्लेख किया गया है।

🌹 उत्तरमेरुर अभिलेख – यह अभिलेख परान तक प्रथम का है। इसी अभिलेख से चोल वंश की स्थानीय प्रशासन का वर्णन मिलता है।

🌹 तक्कोलम अभिलेख – यह आदित्य प्रथम का अभिलेख है। सूर्य ग्रहण के बारे में जानकारी इसी अभिलेख से प्राप्त होती है।

साहित्य

🌹 पेरियपुराणम – इस ग्रंथ में चोल राजा कुलोत्तुंग द्वितीय का बारे में जानकारी मिलती है।

🌹 वीरशेलियम – इस ग्रंथ की रचना बुद्ध विद्वान बुद्धमित्र द्वारा की गई है इसमें तमिल व्याकरण की जानकारी मिलती है

🌹 जीवन चिंतामणि -इस ग्रंथ की रचना जैन विद्वान द्वारा की गई थी।

🌹 कलिंगतुपर्णी – इसके रचनाकर जयगोंदर हैं

🌹 महावंशम – यह श्रीलंका का बौद्ध साहित्य इससे चोल वंश का श्री लंका पर विजय की जानकारी मिलती है।

विजयालय

इसे चोल वंश का संस्थापक माना जाता है। विजयालय का शासन काल संभवत 850 से 871 ई के मध्य में था। विजयालय ने नरकेसरी की उपाधि धारण की थी। इसने पांडय राजाओं से तंजौर को छीन लिया था तथा वहां एक दुर्गा मंदिर की स्थापना की थी। इसने उरेयूर से राजधानी को हटाकर तंजौर में बनाई थी। तंजौर को राजधानी बनाने के पश्चात विद्यालय में नरकेसरी की उपाधि धारण की। निशंभसुदिनी देवी के मंदिर का निर्माण करवाया था।

आदित्य प्रथम

इसे चोल वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसकी शासनकाल 871 से 907 ई के मध्य में था। आदित्य प्रथम चोल वंश के पहले स्वतंत्र राजा थे क्योंकि उनके पिता विजयालय पल्लव राजाओं के सामंत थे। अंतिम पल्लव राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय पे विजय और स्वतंत्र चोल राज्य की स्थापना के बाद इसने कोदडंराम की उपाधि धारण की। इसके अलावा राजकेसरी और राजकेसरीवर्मन भी इसकी उपाधि थी।

नोट:- श्रीपुरंबियम युद्व के समय आदित्य प्रथम पल्लव राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय के सामंत थे। इस युद्ध में पल्लवों की तरफ से पांडय के साथ युद्ध किया था और पांडय राज्य को परास्त किया। बाद में राजेंद्र प्रथम ने कीर्तिवर्मन द्वितीय को परास्त कर पल्लव वंश के मुख्य केन्द्र तोंडमंडलम पर कब्जा करके खुद को पल्लवो से स्वतन्त ख कर लेता है।

परांतक प्रथम

ये आदित्य प्रथम के पुत्र तथा उत्तराधिकारी थे। इनका शासनकाल 960 से 953 ई के मध्य में था। परांतक प्रथम ने पांडय राजा राजसिंह द्वितीय को पराजित करने के बाद मदुरैकोंड की उपाधि धारण की थी। परांतक प्रथम के द्वारा तंजौर में चिदंबरम मंदिर का निर्माण करवाया गया था और नटराज की प्रतिमा के ऊपर सोने की छत का निर्माण भी उसी समय करवाया गया था।

बेल्लुर युद्ध

इस युद्ध में परांतक प्रथम ने पांडय राजा तथा और श्रीलंका के राजा की संयुक्त सेना को परास्त किया था।

इनके दरबार में प्रसिद्ध वेंकट माधव नामक भविष्य का रहते थे जिसने ऋग्वेद पर एस्से लिखा है। इन्होंने अपने कार्यकाल में दो यज्ञ का संपन्न कराया था: – हेममार यज्ञ और तुलागर्भ यज्ञ

इसने कई उपाधि धारण की थी:-मदुरास्तक, मदुरैकोंड, वीर चोल, वीर नारायण, वीर वत्सल।

तक्कोलम युद्व

परांतक प्रथम के शासनकाल में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने गंग राजा के साथ मिलकर चोल साम्राज्य पर आक्रमण किया था और तक्कोलम नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के मध्य भीषण युद्ध हुआ जिसमें परांतक प्रथम की बुरी तरह हार हुई थी। इस युद्ध में हार के बाद चोल राजवंश पुनः अंधकार युग की तरफ प्रवेश करता है इसकी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था बहुत कमजोर हो जाती है। परांतक प्रथम के बाद गंडारादित्य चोल और अरिंजय चोल तथा परांतक द्वितीय राजा हुए।

परांतक द्वितीय

इसने सुंदरकोंड की उपाधि धारण की थी। इसे सुंदर चोल भी कहा जाता है। इसकी पत्नी का नाम लिबनाम देवी थी जो परांतक द्वितीय के मृत्यू के बाद सती हो गई थीं। परांतक द्वितीय ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की थी। इसके बाद उत्तम चोल राजा बना जो परान्तक द्वितीय के चचेरे भाई तथा गंडारादित्य के पुत्र थे। चोलो के प्राचीनतम मुद्रा उत्तम चोल की मुद्रा पाई गई है। उत्तम चोल का पुत्र और उत्तराधिकारी राजराज प्रथम हुआ।

राजराज प्रथम

इसका मूल नाम अरमोलि वर्मन था। राज्याभिषेक के समय इन्होंने राजराज की उपाधि धारण की और इसी नाम से राजा बना था।इसका शासनकाल 985 से 1014 ई के मध्य माना जाता है। करूवर इसके गुरू थे जिसने जिससे इसने सैनिक शिक्षा लिया था। इसे चोल वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

राजराज प्रथम ने गंग वंश, बेंगी के चालुक्य, मदुरा के पांडय और केरल के चेर राजाओं को पराजित किया था। इसने नौसेना का निर्माण कर श्रीलंका और उसके आसपास के देशों पर अधिकार कर लिया था। श्रीलंका पर जब इसनेआक्रमण किया था तो वहां के राजा माहिम-5 को दक्षिणी भाग रोहण में शरण लेनी पड़ी थीं। राजाराज प्रथम ने श्रीलंका के विजित प्रदेश (अनुराधापुर, उत्तरी श्रीलंका) का नाम मुम्डीचोलमंडलम रखा तथा पोलन्नरुआ को इसकी राजधानी बनाया। इस विजय के बाद सिंघलांतक की उपाधि धारण की थी।

शांदिमत्तीवु (मालदीव) विजय भी राजराज प्रथम ने किया था।

पांड्य राज्य के विजय पे जयगोंड और कलिंग विजय के बाद कैलिंगकुलांतक उपाधि धरण की। इसने इससबके अलावा मुम्माडी चोल, राजमार्तंड और शिवपादशेखर की उपाधि धारण की।

तंजौर में राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण राजराज प्रथम के द्वारा ही करवाया गया था जिसे आज बृहदेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है जो तमिल वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है। राजा राज प्रथम धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु राजा था उन्होंने बौद्ध मठों का निर्माण करवाया था। इन्होंने नागपट्टनम विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था। इन्होंने अपनी दादी सेंबियम देवी के नाम पर चौलेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था।

राजा राज प्रथम के शासनकाल में श्रीविजयवंशी (शैलेंद्र वंश) शासक विज्योत्तुंग वर्मन ने नागापट्टीनम में चुनामणि बौद्ध विहार की स्थापना की थी और इसके लिए औनेमंगलम ग्राम की भूमि को दान राजराज प्रथम ने दिया था।

चोल राजवंश में पहली बार भूमि की पैमाइश राजराज प्रथम ने शुरू की और जमीन की उपज के आधार पर कर का निर्धारण किया। इस के शासनकाल में भूमि की उर्वरा में वृद्धि की गई।

राजेंद्र प्रथम

राजेंद्र प्रथम को चोल वंश का सबसे शक्तिशाली तथा प्रतापी राजा माना जाता है। राजेंद्र प्रथम राजराज प्रथम के पुत्र व उत्तराधिकारी थे। राजेंद्र प्रथम का शासनकाल 1014 से 1040 ई के मध्य में था। इन्होंने पांडय, चेर, श्रीलंका और उसके आसपास के देशों पर अपना अधिकार करके अपने पिता राजराज प्रथम से भी बड़ा साम्राज्य का निर्माण किया था। राजेंद्र प्रथम अपनी विजय अभियान में सर्वप्रथम कल्याणी के चालुक्य राजा जयसिंह द्वितीय को परास्त किया था।

1017 में राजेंद्र प्रथम ने समस्त श्रीलंका को अपने अधिकार क्षेत्र में लेता है उस समय श्रीलंका का राजा महेंद्र पंचम था। श्रीलंका के विजय के बाद महेंद्र पंचम को कैदी बनाकर राजेंद्र प्रथम ने आपने राज्य में ले आया था जहां 12 वर्ष के पश्चात इसकी मृत्यु हो गई थी।इसकी नौसेना सभी चौलवंशी राजाओं से शक्तिशाली माना जाता है।

Note:- समस्त उत्तरी श्रीलंका का नाम चोल अभिलेख में “जयनाथ मंडलम” मिलता है।

राजेंद्र प्रथम ने केरल क्षेत्र में स्थित चेर वंश को और पांडव वंश को परास्त करके दोनों क्षेत्रों को मिलाकर एक क्षेत्र बनाया जिसकी मुख्यालय मदुरा को बनाया।

राजेंद्र प्रथम ने अराकानयोमा तथा पेंगू क्षेत्र (आधुनिक म्यानमार) की भी विजय की थी।

राजेन्द् प्रथम ने बंगाल के पाल वंश के राजा महिपाल के समय बंगाल में आक्रमण किया था जिससे पाल वंश को बहुत नुकसान उठाना पड़ा था। इस अभियान में राजेंद्र चोल ने गंगा घाटी तक जीत हासिल की जिस से उत्साहित होकर उसने “गंगेकोंडचाल” की उपाधि धारण की तथा कावेरी नदी के तट पर गंगे कोंडचोलपुरम नामक शहर की स्थापना की तथा इसे अपनी राजधानी बनाया। इसी स्थान पर सिंचाई के लिए एक विशाल तालाब चोलगंगम का निर्माण करवाया।

राजेंद्र प्रथम ने श्रीविजयवंशी (शैलेंद्र वंश) शासक विज्योत्तुंग वर्मन को पराजित कर जावा, सुमात्रा एवं मलाया प्रायद्वीप पर अधिकार कर लिया उसकी नौसेना ने सिंघल द्वीप पर भी अधिकार कर लिया था।

राजेंद्र प्रथम के गुरु शैव संत ईशानशिव थे। इन्होंने गंगाईकोंड- चोलपुरम नामक नगर को बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। गंगाईकोंडचोलपुरम में अनेक मंदिरों का निर्माण राजेंद्र प्रथम के द्वारा करवाया गया था। विद्या में रुचि रखने के लिए तथा अनेक विद्यालय का निर्माण कराने के लिए इन्होंने पंडित चोल की उपाधि धारण की थी। कटाह क्षेत्र और कडारम क्षेत्र (दोनों दक्षिण पूर्वी एशिया) के विजय के उपलक्ष में कटाहधिपति और कडारकोंड की उपाधि धारण की थी। इसके अलावे वीर राजेंद्र, प्रकेसरीवर्मन, मुंडीगोंड, कडरकोंड, गंगाईकोंडचोल आदि उपाधियां राजेंद्र प्रथम के द्वारा धारण की गई थी।

राजेंद्र प्रथम ने चीन में अपना दूत मंडल भेजा था और चीन के साथ व्यापार संबंध स्थापित किया था। इन्होंने कंबोडिया के राजा खमेर के दरबार में भी अपना दूध मंडल भेजा था और राजनीतिक तथा वाणिज्यिक संबंध स्थापित किए थे। इन्होंने सिंचाई को विकसित करने के लिए कई तालाब एवं नहरों का निर्माण किया था।

राजाधिराज प्रथम

यह राजेंद्र प्रथम के पुत्र तथा उत्तराधिकारी थे। राजाधिराज प्रथम का शासनकाल संभवत 1044 से 1052 माना जाता है। इसने विजयराजेंद्र की उपाधि धारण की थी। 1052 ई में कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर के साथ हुए युद्ध में राजाधिराज प्रथम की मृत्यु हो गई थी।

राजेंद्र द्वितीय

यह राजाधिराज प्रथम के भाई तथा उत्तराधिकारी थे। राजेंद्र द्वितीय का शासन काल 1052 से 1062 के मध्य में माना जाता है। इसने कोल्हापुर में जयस्तंभ की का निर्माण करवाया था। इसने प्रकेसरी की उपाधि धारण की थी।

वीर राजेंद्र

इसका शासनकाल 1062 से 1000 संसद के मध्य में माना जाता है। यह राजेंद्र द्वितीय के भाई तथा उत्तराधिकारी थे। इसने राजकेसरी की उपाधि धारण की थी। इसने अपनी पुत्री का विवाह कल्याणी के चालुक्य वंश के राजा के साथ किया था। वीर राजेंद्र के बाद अधिराजेंद्र राजा हुए।

कुलोत्तुंग प्रथम

यह अधि राजेंद्र के बहनोई तथा उत्तराधिकारी थी। किस का शासन काल 1070 से 1120 ईस्वी के मध्य माना जाता है। इसने अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार से किया था। इसने “शुंगमतर्तीत” की उपाधि धारण की थी। चोल लेखों में इसे “करो को हटाने वाला शासक” कहा गया है।

विक्रम चोल

कुलोत्तुंग प्रथम का उत्तराधिकारी और पुत्र था। इन्होंने चिदंबरम में स्थित नटराज मंदिर का पुनरुद्धार करवाया। इसके द्वारा प्रजा से जबरन कर वसुले गए। इन्होंने प्राचीन वैष्णव मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया था जिसकी वजह से इसका नाम “त्याग समुद्र” पड़ा था।

बिक्रम चोल के बाद कुलोत्तुंग द्वितीय, राजाराज द्वितीय, राजाधिराज द्वितीय, कुलोत्तुंग तृतीय और राजाधिराज तृतीय राजा हुए परंतु इनमें से कोई शक्तिशाली राजा नहीं था।

राजेंद्र तृतीय

इसे चोल वंश का अंतिम राजा माना जाता है। राजेंद्र तृतीय को पांडे राजा ने पराजित करके संपूर्ण चोल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था।

चोलो की मुद्रा

चोरों की मुद्रा को काशु कहा जाता था जो स्वर्ण मुद्रा थी। कनारा क्षेत्र से रजत मुद्रा के भी प्रमाण मिले हैं। चोल वंश की मुद्राभांड (मुद्राभंडार) से धौलेश्वर से पाई गई है। इनके मुद्राओं में तीन प्रतीक दिखाई देते हैं बाघ, मछली और धनुष। चोल मुद्रा पर राजराज प्रथम का चित्र अंकित मिलता है जिसमें इसे “मुरलीधर” उपाधि से सूचित किया गया है।

चोल कालीन प्रशासन व्यवस्था

चोल काल में राजा का पद पैतृक होता था। सबसे बड़ी पुत्र को ही युवराज चुना जाता था। इस काल में राजा के ऊपर शासकीय कार्य को करने वाला अधिकारी “ओले” कहलाता था। चोल काल में उच्च अधिकारियों को पेसंदरम और छोटे अधिकारियों को शेरूतरम कहा जाता था। चोल काल में राजा के अंग रक्षकों को “वेलाइक कारा” कहा जाता था।

चोल काल में राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था। संपूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रांतों मंडल में बटा हुआ था। प्रांतों को मंडल, मंडल को कोट्टम, कोट्टम को नाडु और नाडु को कुर्रमो में विभाजित किया गया था।

ग्रामीण प्रशासन/ स्थानीय स्वशासन

चोल राजवंश में ग्रामीण प्रशासन का संचालन राजा द्वारा ना होकर सभा के द्वारा होती थी। इस प्रशासन में तीन प्रकार के सभा की जानकारी मिलती है ऊरसभा, सभा/महासभा और नगरम। नगरम नामक सभा उन गांव में पाई जाती थी जहां व्यापारिक संचालन होता था। ऊरसभा एक सामान्य सभा थी जिसका सदस्य गांव के सभी लोग होते। थे इसमें लोगों के चुनाव के लिए कोई पद्धति निर्धारित नहीं थी। यह कोई महत्वपूर्ण फैसले नहीं ले सकते थे।

सभा/महासभा अग्रहार गांव में होता था। सभा को अभिलेखों में पेरुंगुरी कहा गया है तथा इनके सदस्यों को पेरुमक्कल कहा गया है। किसी विशेष कार्य के लिए नियुक्त व्यक्ति को वारियार कहा गया है। अगर हर ग्राम उस गांव को कहा जाता था जिसे राजा ब्राह्मणों को दान के रुप में देता था। सभा/महासभा की समिति को महाजन कहा जाता था महाजन के सभी सदस्य ब्राह्मण होते थे। महाजन को चोल अभिलेखों में वरियम कहा गया है। वरियम की बैठक मन्दिर में होती थी। वरियम के सदस्यों को बैठक की सूचना देने के लिए वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था।

वरियम का कार्यकाल 3 वर्ष का होता था। वरियम के सदस्यों का चुनाव कडूबौले पद्धति (लॉटरी पद्धति) से होता था। चुनाव के लिए गांव को 30 वार्ड में बांट दिया जाता था और प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य का चुनाव होता था। चुने जाने वाले सदस्यों की योग्यता निर्धारित थी:-

योग्यताएं

1) जो नैतिक रूप से श्रेष्ठ हूं तथा भ्रष्टाचार में लिप्त ना हो।

2) आशिका हुआ वेद एवं भाष्य का ज्ञाता हो।

3) 1/4 वेली (डेढ़ हेक्टेयर) जमीन का मालिक हो।

4) उम्र 35 से 70 वर्ष से के बीच हो।

5) वह शुद्रो के संपर्क में न आया हो।

6) महिला एवं शूद्र भागीदार नही बन सकते थे।

मध्यस्थ नामक एक राजा का अधिकारी इस ग्रामीण प्रशासन का नियंत्रक होता था। समिति के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने के लिए राजा द्वारा आयंगर नामक पदाधिकारी नियुक्त होता था

समिति के कार्य

🦩 समिति के पास कर लगाने का अधिकार था तथा यह कर वसूलने का भी काम करते थे।

🦩 कर के दर में कमी या बढ़ाने या छूट देने का अधिकार समिति को था।

🦩 बेगार लेने का अधिकार समिति के पास था।

🦩 समिति बैंक का काम भी करती थी।

Note:- बेकार का सबसे पहला उल्लेख जूनागढ़ अभिलेख से प्राप्त होता है।

चोल काल की केंद्रीय समितियां

🦩 विदेशी एवं सन्यासियों मामले को देखने वाला अधिकारी- उदासिन वारियम

🦩 उद्यान समिती – तोट्ट वारियम

🦩 पोन वारियम – स्वर्ण समिती

🦩 वारि वारियम – तालाब समिति

सारे समितियों का नियंत्रण समवत्स्वलियम नामक संस्था करती थी।

केंद्रीय राजस्व विभाग को वारिपोत्त कहा जाता था। इसका वारिपोत्तगक्क होता था। राजस्व विभाग का प्रबंधन का कार्य नाडु सभा करती थी।

चोल काल के प्रमुख कर

🦩 चौकीदारी कर – पाडिकावल

🦩 शिल्पकारों से लिया जाने वाला कर -मगनमे

🦩 तेलियों से लिया जाने वाला कर – पेवरि

Note:-ब्राह्मणों को दान में दी गई जमीन को ब्रह्मदेय चतुर्वेदी मंगलम भी कहा जाता था। शिक्षा तथा शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए दान में दी गई भूमि को शालभोग कहा जाता था। मंदिरों के लिए दान में दी गई जमीन को देवदान कहा जाता था। पल्लीचंदम भूमि वह भूमि होती थी जो जैन मंदिरों के लिए दान दी जाती थी। राजकीय भूमि को अधिमान्यम कहा जाता था। राजकीय भूमि के ऊपर लगने वाले लगान को कदमाई/कुडमै।

चोल कालीन संस्कृति

क्यूल मूर्ति कला की मुख्य विशेषता काशी की मूर्तियों का निर्माण था जिसमें नटराज की कांस्य प्रतिमा सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है। चोल काल में ब्राह्मणों को दी गई लगान मुक्त भूमि को चतुर्वेदी मंगलम के नाम से जाना जाता था। कलिंगतुपर्णी ग्रन्थके रचनाकार जयगोन्दर थे जो कुलोत्तुंग प्रथम के दरबार में रहते थे। तमिल साहित्य के त्रिरत्न पुगलेंदी, ओट्टक्कूटन और कंबन को माना जाता है। चोल काल में स्थापत्य कला की जो शैली अपनाई गई उसे द्रविड़ शैली के नाम से जाना जाता है।

चोल वंश अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

1) चोलो का मूल निवास स्थान उरेयूर था जो इस सम्राज्य का महत्वपूर्ण बंदरगाह तथा व्यापारिक नगर था।

2) चोल वंश में 4 भाषाओं का प्रचलन था तमिल, कन्नड़, तेलुगू और संस्कृत।

3) चोल वंश को तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है।

4) चीनी विदेश यात्री चाउ जी कुवां चोल राजवंश में आया था। इसने अपने पुस्तक “चू -फान -चुन” मैं चोल वंश के स्थानीय स्वशासन और न्याय व्यवस्था की तारीफ की है।

5) इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने राजेन्द्र प्रथम की तुलना सिकंदर से की है वही महान इतिहासकार स्मिथ ने इसे दक्षिण का नेपोलियन कहा है।

6) शब्दावली

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मौर्योत्तरकालीन भारत पहलव वंश वीडियो

https://youtu.be/aPZSILMSHRk

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