कल्चुरी वंश का इतिहास
History of kalchuri dynasty
परिचय
मध्यकालीन भारत में कलचूरी की 4 शाखाएं थी पहली शाखा माहिष्मती (आधुनिक महेश्वर जो खरगौन जिला में) दूसरी शाखा त्रिपुरी (आधुनिक तेवर जबलपुर के पास) तीसरी शाखा रत्नापुर (बिलासपुर के पास) और चौथी शाखा रायपुर में विकसित हुई। कलचूरी राजकीय चिन्ह नंदी बैल था। कलचुरी शैव धर्म के उपासक थे।
महिष्मति शाखा
महिष्मति शाखा के संस्थापक का नाम कृष्ण राज (550-575) था। कृष्ण राज के सिक्के बेसनगर (विदिशा) और पाटन से मिले हैं। इसके बाद शंकरगढ़ (575 से 600 ई) और बुधराज ने यहां शासन किया। जब बुधराज का शासन चल रहा था उस समय गुजरात के चालूक्य (सोलंकी वंश) राजा मंगलेश ने इसे हरा दिया। इस तरह कलचूरीयों के माहिष्मती शाखा का पतन हो गया। बाद में पुलकेशिन द्वितीय ने इस क्षेत्र को पूरी तरह से अपने अधीन कर लिया।
त्रिपुरी शाखा
माहिष्मती शाखा के अंत होने के बाद कलचुरी-चेदी (बुंदेलखंड या डाहल मंडल) की तरफ बढ़े और वहीं दूसरी शाखा त्रिपुरी शाखा की स्थापना की।
वमराजदेव
त्रिपुरी शाखा का प्रारंभिक संस्थापक एवं वमराजदेव (675-700 ई) को माना जाता है। वमराजदेव ने त्रिपुरी शाखा की प्रारंभिक राजधानी कालिंजर को बनाई। वमराजदेव ने त्रिपुरी शाखा का विस्तार नर्मदा नदी से लेकर गोमती नदी तक किया।
कोकल्ल-1
इसका वास्तविक संस्थापक कोकल्ल-1(850-890 ई) को माना जाता है। कोकल्ल-1 का विवाह चंदेल (राजा राहिल के समय) राजकुमारी नट्टा/हट्टा देवी से हुआ था। इन दोनों से विक्कल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिन्होंने रत्नापुर शाखा की नींव डाली।
युवराज देव प्रथम
कलचूरियों में युवराज देव प्रथम पहला स्वतंत्र शासक बने। चंदेल राजा यशोवर्मन ने युवराज देव प्रथम को पराजित किया था।
शंकरगढ़ तृतीय
चंदेल राजा यशोवर्मन के पुत्र धंगदेव ने शंकरगढ़ तृतीय को परास्त किया था। यह भगवान विष्णु के उपासक हुए।
युवराज देव द्वितीय
परमार राजा वाकपति मूंज ने युवराज देव द्वितीय को परास्त किया था। बाद में युवराजदेव द्वितीय और वाकपति मुंज के बीच में समझौता हो गया क्योंकि वाकपति मुंज के राज्य में तैलप द्वितीय बार बार आक्रमण कर रहा था और इस आक्रमण से बचने के लिए वाकपति मूंजने युवराज देव द्वितीय से समझौता किया। इन्होंने बिलहरी शिलालेख को लिखवाया था। इन्होंने जबलपुर के भेड़ाघाट के निकट 81योगिनी मंदिर (गोलाकी मंदिर) का निर्माण कराया था। इस मंदिर को गोलाकी मठ के नाम से भी जाना जाता है।
गांगेयदेव (1015-1041)
गांगेयदेव के समय परमार और चंदेल दोनों इसके शत्रु हो गए। इन शत्रुओं से मुकाबला करने के लिए गांगेयदेव ने परमार राजा भोज और चोल राजा राजेंद्र प्रथम से मिलकर एक संघ की स्थापना की। इस संघ ने चालुक्य राजा जयसिंह द्वितीय को परास्त किया। बाद में राजा भोज और गांगेयदेव के बीच शत्रुता हो गई जिससे राजा भोज ने गांगेयदेव को परास्त कर दिया। पुनः गांगेयदेव को चंदेल राजा विद्याधर से भी हार जाते हैं। फिर चंदेल शासक विजयपाल से भी हार जाते हैं।
लक्ष्मीकर्ण (1041 से 1076)
यह गांगेयदेव के पुत्र और उतरधिकारी थे। यह कलचुरी वंश का सबसे प्रतापी राजा माना जाता था। इन्होंने चक्रवर्ती, महाराजाधिराज और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। इन्होंने राजा भोज को परास्त करने के लिए सोलंकी राजा भीम प्रथम और चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम के साथ एक संघ का निर्माण किया और राजा भोज को परास्त किया। इन्होंने चंदेल शासक जयवर्मा को परास्त कर पूरे चंदेल राज्य में कब्जा कर लिया था। इस तरह चंदेल पूरी तरह कलचूरीयों के अधीन हो गए लेकिन कुछ समय के बाद कीर्तिवर्मन ने इसे आजाद करा लिया (लक्ष्मी कर्ण के समय में ही)।
History of kalchuri dynasty
लक्ष्मीकर्ण बंगाल के पाल राजाओं के ऊपर आक्रमण किया था। लक्ष्मीकर्ण और बंगाल के पाल राजा नयपाल के मध्य भीषण युद्ध हुआ था परंतु विक्रमशिला विश्वविद्यालय के बौद्ध दार्शनिक दीपांकर श्रीज्ञान के द्वारा दोनों राजाओं के मध्य एक संधि करवाई जिसकी शर्त के अनुसार लक्ष्मीकर्ण ने अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह नयपाल के पुत्र विग्रहराज द्वितीय से कर दिया था। इन्होंने बनारस में कर्णमेरु मंदिर का निर्माण कराया।
गया कर्ण
इसे त्रिपुरी शाखा का अंतिम राजा माना जाता है।
महत्वपूर्ण तथ्य
1) कलचुरी वंश की जानकारी बड़ौदा अभिलेख और उदयपुर अभिलेख से प्राप्त होती है।
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