Paharia Revolt Detailed Study | पहाड़िया विद्रोह विस्तृत अध्धयन

Jharkhand Revolt

पहाड़िया विद्रोह

Paharia Revolt

विभिन्न कारणों से झारखंड में पहाड़िया विद्रोह चार चरणों में हुआ। 1772, 1778, 1779 एवं 1781-82

पहला चरण – पहाड़िया विद्रोह का पहला चरण 1772 ई में हुआ। इस विद्रोह का मुख्य कारण भीषण अकाल था। वर्ष 1770 से चले आ रहे भीषण अकाल के वजह से पहाड़िया आदिवासियों को विद्रोही बना दिया। हालांकि आकाल के दौरान मैदानी क्षेत्र के लोगों से पहाड़िया आदिवासियों की स्थिति अच्छी रही थी। फिर भी अकाल के समाप्त होने पर पहाड़िया आदिवासियों ने पहाड़ से उतरकर मैदानी इलाकों में लूटपाट मचाना शुरू कर दिया। इस विद्रोह का नेतृत्व सूर्य चंगरू सांवरिया, पाचगै डोम्बा, करिया पुजहर आदि नेताओं ने किया। जो इस विद्रोह के दौरान शहीद भी हुए। इस विद्रोह में सनकारा के राजा सुमेर सिंह की हत्या कर दी गई थी। वारेन हेस्टिंग के आदेश पर कैप्टन ब्रूक ने पहाड़िया लोगों को अपने विश्वास में लेने के लिए कई प्रयत्न किए मगर वह असफल रहा।

दूसरा चरण- अगस्तस क्लीवलैंड ने 1778 ई में अपनी नियुक्ति के 9 महिने के भीतर 47 पहाड़िया सरदारों को कंपनी की अधीनता स्वीकार करवाने में सफलता पाई। इसने 1300 पहाड़िया युवाओं को धनुर्धर के रूप में सरकारी नौकरी प्रदान की। जिसे ₹2 से ₹10 तक का वेतन दिया जाता था। क्लीवलैंड के इस प्रयास को कंपनी की साजिश और भेदभाव समझा गया और पहाड़िया लोगों ने जगन्नाथ देव के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।

तीसरा चरण- इस आंदोलन का तीसरा चरण 1779 ई में हुआ। यह एक छिटपुट विद्रोह था। इस विद्रोह के दौरान ज्यादा जनधन की हानि नहीं हुई थी।

चौथा चरण- इस विद्रोह का चौथा चरण का नेतृत्व रानी सर्वेश्वरी ने किया जो सुल्तानाबाद राज (महेशपुर, पाकुड़) की रानी थी। इस विद्रोह का मुख्य कारण कंपनी सरकार का राजमहल क्षेत्र को दामिन ए कोह की घोषणा करना था।

रानी सर्वेश्वरी

रानी सर्वेश्वरी सुल्तानाबाद राज की रानी थी। सुल्तानाबाद राज आज के पाकुड़ जिला के महेशपुर प्रखंड के आसपास फैला हुआ था।

रानी सर्वेश्वरी ने पहाड़िया विद्रोह के अंतिम चरण (1781-1782) में नेतृत्व किया था। अंग्रेजो ने दामिन -ए-कोह की घोषणा कर दी जिसका उद्देश्य इस क्षेत्र को प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी हुकूमत के अधीन लाना था। रानी सर्वेश्वरी ने इस दामिन -ए-कोह के खिलाफ विद्रोह कर दिया। ब्रिटिश सैनिक कमांडर क्लिवलैंड ने रानी सर्वेश्वरी के विद्रोह का दमन कर दिया और संक्षिप्त मुक़दमा चलाकर उसे भागलपुर जेल में बंद कर दिया। जहां 1807 ई में इसकी मृत्यु हो गई।

Note :- गोरखपुर से आकर दो भाई बाकू सिंह और आबू सिंह सुल्तानाबाद में आकर बसे। खड़गपुर के राजा इनलोगो के रिश्तेदार थे जिसके मदद से इसने आसपास के सरदारों को हराकर सुल्तानाबाद राज्य की स्थापना की और बाकू सिंह राजा बना। बाकू सिंह के उपरांत उसके छोटे भाई आबू सिंह सुल्तानाबाद के राजा बने। आबू सिंह के ही एक वंशज गुर्जन सिंह ने पहाड़िया लड़की सर्वेश्वरी से विवाह किया था। नि: संतान गुर्जन सिंह की मृत्यु 1758 ई में होने के बाद सर्वेश्वरी सुल्तानाबाद की रानी बनी थी।

Note: दामिन ए कोह की स्थापना 1824 ई में कैप्टन ट्रेनर के सर्वेक्षण के बाद किया गया था।

जगन्नाथ देव का विद्रोह

संथाल परगना के दक्षिण-पश्चिम भाग में लक्ष्मीपुर राज्य के घटवाल सरदार ने 1773 इसी में विद्रोह किया था। 1773 ई में देवघर के त्रिकूट पहाड़ियों में जगन्नाथ देव एवं कैप्टन ब्रुक के बीच संघर्ष हुआ था। जगन्नाथ देव ने पराजित होने के बावजूद पुनः 1775 ई में विद्रोह किया था जिसके कारण 1776 ई में उसकी जमीदारी छीन कर उसके बेटे रूपनारायण देव को दे दिया गया था। जगन्नाथ देव एवं रूपनारायण देव दोनों ने मिलकर कंपनी के खिलाफ 1785 ई तक विद्रोह जारी रखा था। 1785 ई में रूप नारायण देव अंग्रेजों द्वारा अंतिम रूप से पराजित हो गए थे।

संताल परगना (जंगलतराई) के पहाड़िया और घटवाल

इसे पहाड़िया घटवाल विद्रोह (1770-1803 ई) के नाम से जाना जाता है. पहाड़िया इस क्षेत्र की मूल आदिम जनजाति थी. वे उस समय तक भी आदिम (प्रिमिटिव) अवस्था में थे।

इसे पहाड़िया घटवाल विद्रोह (1770-1803 ई) के नाम से जाना जाता है. पहाड़िया इस क्षेत्र की मूल आदिम जनजाति थी. वे उस समय तक भी आदिम (प्रिमिटिव) अवस्था में थे. खाद्यान्न संग्रह शिकार तथा फल-मूल संचय पर उनकी जीवन पद्धति आधारित थी. वे खेती नहीं करते थे. यानी उनकी खेती की पद्धति हल-बैल पर आधारित नहीं थी. उनकी कृषि पद्धति पुरापाषाण काल की पद्धति जैसी थी, जिसे यूरोप में शिफ्टिंग कल्टीभेशन कहा जाता है.

इस क्षेत्र में उसे ‘झूम’ खेती कही जाती है. इस तरह की आदिम जनजातियां भारत में अन्यत्र भी पाये जाते हैं यथा पलामू के बिरजिया, मध्य प्रदेश के बैगा, भारिया, छोटानागपुर के बीरहोर, शबर आदि. मानवशास्त्रियों के अनुसार, इनकी यह पद्धति संसाधनों के उपयोग और पर्यावरण में समुचित संतुलन पर आधारित थी. उनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित थी और वे ‘आर्केडियन सिम्पलीसीटी’ के प्रतिम उदाहरण थे.

प्रारंभ से मुगल काल तक पहाड़िया अपने जंगलों और पहाड़ों पर समाज की मुख्य धारा से पृथक अपनी मर्जी से एवं अपने जीवन दर्शन के अनुकूल रह रहे थे, किंतु पलासी और बक्सर के युद्धों के पश्चात कंपनी की सत्ता स्थापित होने के बाद पूरा क्षेत्र ब्रिटिश विरोधी विद्रोहों का केंद्र बन गया. ये सारे विद्रोह इस क्षेत्र के घटवालों के नेतृत्व में पहाड़िया जनजाति द्वारा किया जा रहा था. यह आधुनिक भारत में ब्रिटिश विरोधी विद्रोहों में प्रथम, व्यापक और लंबी अवधि (33 वर्ष) तक चलने वाला विद्रोह था.

इसके यथेष्ट प्रमाण तत्कालीन ब्रिटिश स्रोतों में मिलते हैं. यह घटवाल एक अर्ध-जनजातीय समाज था. घटवाल कोई जातिसूचक शब्द नहीं है. मुगलकाल से ही इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है. जंगलों और पहाड़ों के बीच की घाटियां जिनसे होकर सेनाएं गुजरती थीं, उनकी रक्षा और चौकीदारी का दायित्व जिन लोगों पर दिया जाता था, उन्हें घटवाल कहा जाता था. इस सेवा के एवज में उन्हें करमुक्त जमीन दी जाती थी और कुछ अधिकार भी दिये जाते थे.

सामान्यत: घटवालों में भूमिज जनजाति (भुइयां) के लोग अधिक संख्या में थे. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद ही जनजातियों ने पूरे भारत में विद्रोह का झंडा बुलंद किया जबकि वे सहस्राब्दियों से शांत और संतुष्ट थे. अनेकों जनजातीय विद्रोहों यथा चुआर विद्रोह, कोल विद्रोह, भूमिज विद्रोह और संताल विद्रोह.

इस ऐतिहासिक परिदृश्य को समझने के लिये ब्रिटिश शासन के औपनिवेशक चरित्र को समझना आवश्यक है. पूर्व के शासकों ने इन जनजातियों की जीवन पद्धति में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया था और टैक्स के रूप में भी उनके लघु वन उत्पाद यथा मधु, घी, जड़ी-बुटियां आदि वसूले जाते थे. पहाड़िया विद्रोह के पश्चात अंग्रेजों ने पहाड़िया जनजाति को स्याह काले रंग में चित्रित करना शुरू किया. 18-19वीं शताब्दियों की साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी धारणा में इनके मूल में थीं.

उस अवधि में गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता प्रजातीय अहंकार तथा प्रकृति को अपने हित में पूर्ण रूप से शोषित करने का सिद्धांत तथा भौतिक सुख समृद्धि की तुला पर सभ्यता का मूल्यांकन और परिमापन इतिहास के रैखिक प्रगति का सिद्धांत इत्यादि था. इसी सोच और समझ के तहत अंग्रेज जनजातियों को जंगली इंसान समझते थे, जो आधुनिक मानव (होमो सैपियन्स) से दोयम दर्जे के थे. अंग्रेज लेखकों ने पहाड़िया को बर्बर, रक्त पिपासु में चित्रित किया है. लेकिन उनका यह चित्रण ऐतिहासिक आधार पर मिथ्या है. इन लेखनों पहाड़िया पर अंग्रेजों द्वारा किये गये बौद्धिक हिंसा का प्रमाण मिलता है.

शांतिपूर्ण जीवन बीताते थे पहाड़िया: पहाड़िया जनजाति दो वर्गों में विभाजित है- उत्तरी पहाड़िया यानी मेलर पहाड़िया या सौरिया पहाड़िया और दक्षिणी पहाड़िया या माल पहाड़िया. सामान्यत : बांसलोई नदी के उत्तर मेलर और दक्षिण में माल पहाड़िया पाये जाते हैं. हमारे पास दो समकालीन स्रोत उपलब्ध हैं, जिनसे हमें पहाड़िया के बारे में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व की स्थिति की जानकारी मिलती है. पहला स्रोत कैप्टन ब्राउन की लिखी गयी पुस्तक है.

इसे इंडिया ट्रैक्टस (1778 ई) के नाम से जाना जाता है. दूसरा स्रोत कैप्टन एलटी शॉ के निबंध हैं जो एशियाटिक रिसर्च में प्रकाशित है. ब्राउन के अनुसार, मुगल काल में पहाड़िया शांतिपूर्ण जीवन बीताते थे. प्रत्येक पहाड़ी तप्पा एक प्रधान मांझी के अधीन था. अलग अलग पहाड़ी तप्पों के मांझी सरदार जमींदार के साथ मुचलका के माध्यम से संबद्ध थे. इस व्यवस्था के अंतर्गत इस क्षेत्र में कोई डकैती या लूट नहीं होते थे.

अपराध की निगरानी पहाड़िया सरदार ही करते थे. ब्राउन के उपरोक्त कथन से प्राक्-ब्रिटिश काल में पहाड़िया सीधा-सादा चरित्र स्पष्ट हो जाता है. लेकिन ब्रिटिश शासन की स्थापना के तुरंत बाद ही पहाड़ियाओं ने लूटपाट मचाना शुरू किया तथा कंपनी की सत्ता को चुनौती दी. इसके क्या कारण थे. इतिहास का सर्वमान्य तथ्य है कि कोई भी घटना अकारण नहीं होती. अंग्रेज अफसरों ने कंपनी शासन के औपनिवेशिक चरित्र में पड़ताल नहीं की.

वस्तुत: इस विद्रोह के कारणों को गंभीरता से खोजा नहीं गया है. पलासी और बक्सर के युद्धों के पश्चात बंगाल में नवाब काफी कमजोर हो गये थे. कंपनी द्वारा स्थापित द्वैध शासन में सरकार के नाम चलायी जाती थी, लेकिन वास्तविक अधिकार कंपनी के अधिकारियों के हाथों में थी. फलत: जमींदार भी नवाब को हेय दृष्टि से देखते थे. कंपनी ने जमींदारों की सैन्य शक्ति को खत्म कर दिया और उन्हें जो पुलिस अधिकार प्राप्त थे वे भी छीन लिये गये. ग्रामीण इलाकों में जमींदार ही सत्ता का प्रतीक था. इस तरह पूर क्षेत्र में शक्ति रिक्तता उत्पन्न हो गयी.

जमींदारों से धोखा खाने के बाद अराजक हो गये थे पहाड़िया: पहाड़िया लोग मुख्यत: मनिहारी तप्पा के जमींदार के अधीनस्थ थे, लेकिन जमींदार ने पहाड़ियाओं के साथ धोखा किया और कई पहाड़िया सरदार को दशहरा के भोज के अवसर पर धोखे से मरवा दिया. पहाड़िया ने प्रतिशोघ में मंझवै घाटी में स्थित लकड़गढ़ के किले पर कब्जा कर लिया. इन अराजक परिस्थितियों को संभालने वाला कोई नहीं रहा.

इस क्षेत्र में खड़गपुर राज, वीरभूम राज और राजशाही राज, तीन बड़ी जमींदारियां थीं. कंपनी ने इन तीनों जमींदारियों का असैन्यीकरण कर दिया. अत: जमींदार वर्ग क्षेत्र में शांति व्यवस्था कायम रखने में अक्षम हो गये. 1770 के अकाल में पहाड़िया ओर घटवालों ने कानून व्यवस्था तोड़ते हुए लूटपाट मचाना शुरू कर दिया तथा कंपनी की सत्ता को चुनौती दी. विद्रोहियों का स्पष्ट मत था कि हम मुगलों की सत्ता को स्वीकार करते थे लेकिन कंपनी की सत्ता को नहीं मानते हैं.

प्रारंभ में इस विद्रोह का नेतृत्व लक्ष्मीपुर (बौंसी के नजदीक) के घटवाल जगन्नाथ देव कर रहे थे. उन्हें पटसुंडा, बारकोप और मनिहारीके खेतौरी जमींदारों का भी समर्थन प्राप्त था. इन लोगों ने कंपनी के दावों को खारिज करते हुए लगान देना बंद कर दिया. मीरकासिम ने खड़गपुर के राजा मुजफ्फर अली को अपमानित और अपदस्थ कर गिरफ्तार कर लिया था. अत: शक्ति शून्यता का लाभ उठाते हुए जगन्नाथ देव ने मुंगेर से लेकर भागलपुर-कहलगांव तक अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया.

तत्कालीन गर्वनर वारेन हेस्टिंग्स ने जंगलतराई नाम से एक सैनिक जिला का गठन किया और कैप्टन ब्रुक को जिम्मेवारी दी गयी. प्रारंभ में अंग्रेजों ने पहाड़ियाओं के दमन ने अमानवीय क्रूरता और नृशंसता दिखाई. पहाड़ियाओं पर अंधाधुध गोलियां बरसाई गयीं और उनके मुंडों को टोकरी में भर कर आला अफसरों को भेजा जाने लगा. फिर भी पहाड़ियाओं का विद्रोह जारी रहा.

जगन्नाथ देव के नेतृत्व में छह वर्षों तक (1770-1776) यह विद्रोह जारी रहा. अंग्रेजों के कपटपूर्ण युक्ति और छल के सहारे किले पर आक्रमण किया और जगन्नाथ देव को भागना पड़ा. जगन्नाथ देव पहले चकाई की तरफ चले गये. विद्रोही गतिविधियां जारी रहीं. लेकिन कंपनी द्वारा सैनिक घेराबंदी के बाद जगन्नाथ देव ने समर्पण कर दिया. बाद में उनके पुत्र रूपनारायण देव को सौंपी गयी. कुछ समय चुप रहने के बाद रूपनारायण देव ने फिर से ब्रिटिश विरोधी गतिविधियां प्रारंभ कर दी.

गोड्डा के जमनी के पास टाटकपाड़ा के पहाड़िया सरदार बुद्धू फौजदार से मित्रता कर ली और विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया. रूपनारायण देव का विद्रोह 1803 ई तक जारी रहा. इन विद्रोहों का सामना करने के लिये सर्वप्रथम कैप्टन ब्रुक को सेना के साथ भेजा गया. बाद में ब्रुक को पूर्णियां भेज दिया गया और जुलाई 1774 ईं में कैप्टन ब्राउन को जंगलतराई का प्रभार दिया गया. और वे 1778 ई जंगलतराई के प्रभार में रहे.

ब्राउन ने ब्रुक की योजना को उपनिवेशीवादी रूप देना प्रारंभ किया. ब्राउन रास्तों पर चौकी और घाटों की सुरक्षा का प्रबंध किया, जमींदारों की पुलिस शक्तियां छीन ली गयी. उसने पहाड़ियाओं को आर्थिक सहायता देने का भी सुझाव दिया. लेकिन उसकी योजना का महत्वपूर्ण पहलू पहाड़िया इलाकों को चारोंतरफ से घेरने का था. ब्राउन के बाद मिस्टर बार्टन को प्रभार दिया, जिसके बाद ऑगस्टन क्लीवलैंड ने कलक्टर का प्रभार लिया।

पहाड़िया विद्रोह के अन्य विभिन्न क्षेत्र

1. पाचगे डोम्बा – इसने साहेबगंज जिला के भंगभंगा पहाड़ में विद्रोह किया था।
2. जबरा पहाड़िया – इसने पाकुड़ जिला के सिंघारसी पहाड़ में विद्रोह किया था।
3. गुरुधर्मा पहाड़िया- इसने गोड्डा जिला के गढ़सिंगला पहाड़ में विद्रोह किया था।
4. करिया पुजहर-इसने पाकुड़ जिला के आमगाछी पहाड़ में विद्रोह किया था।
5. चंगरू सावरिया –इसने साहेबगंज जिला के तारागाछी पहाड़ में विद्रोह किया था।
6. गौरसिंह पहाड़िया –इसने कालीपाथर पहाड़ में विद्रोह किया था।
7. गंगा जोहरा मांझी –इसने साहेबगंज जिला के गदवा पहाड़ में विद्रोह किया था।
8. कचवा दोहरी पहाड़िया –इसने पाकुड़ जिला के बरदाहा पहाड़ में विद्रोह किया था।
9. रमना आहिडी – यह विद्रोह 1766 मेंजामताड़ा जिला के धसनिया पहाड़ में विद्रोह किया था।
10. दुबुआ देहरी पहाड़िया – इसने गोपीकांदर (दुमका) में विद्रोह किया था।

Hill Assembly Plan

पहाड़िया विद्रोह के दौरान राजमहल क्षेत्र में काफी असंतोष फैला रहा। इस असंतोष को कम करने के क्लीवलैंड ने Hill Assembly Plan की शुरुआत की। यह Plan पहाड़िया जनजातियो के कल्याण के लिए बनाया गया। इस Plan के तहत समूचे राजमहल पहाड़ी क्षेत्र के पहाड़िया को एक शासन व्यवस्था Hill Assembly के अंर्तगत लाया गया। Hill Assembly का प्रमुख “सरदार”को बनाया गया जो वंशानुगत पद था।

यह Assembly पहाड़िया जनजाति के परंपरागत शासन व्यवस्था पर आधारित था। सरदार को मृत्युदंड तक का अधिकार दिया गया था। सरदार को शासन व्यवस्था का सारा सूचना कंपनी सरकार को देना पड़ता था। सरदार तथा अन्य अधिकारियों को कंपनी सरकार के तरफ से वेतन दिया जाता था।

कुछ पहाड़िया धनुर्धरों को पुलिस की तरह तैयार किया गया जिसे वेतन दिया जाने लगा।

क्लीवलैंड ने एक हाट (बाजार) की व्यवस्था भी की ताकि पहाड़िया लोग वन्य उत्पाद को बेच सके।

Paharia Revolt Video

https://youtu.be/UaHjvRpuk4c

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *