Birhor Tribes

बिरहोर जनजाति | Birhor Tribes

Jharkhand Tribes

बिरहोर जनजाति

Birhor Tribes

परिचय

बिरहोर दो शब्दों से मिलकर बना है बिर और होर। बिर का अर्थ होता है जंगल और होर का मतलब आदमी। अतः बिरहोर का शाब्दिक अर्थ होता है जंगल का आदमी। बिरहोर अपने आप को खरवार की तरह सूर्यवंशी मानते है और खुद को खरवारों का एक समूह मानते है। 1925 में मानवशास्त्री शरदचंद्र राय ने बिरहोर समुदाय पे शोध के उपरांत “The Birhor: A Little Known Jungle Tribe Of Chhotanagpur” पुस्तक लिखा।

जनजातीय वर्गीकरण

बिरहोर जनजाति को विलुप्तप्राय और अल्पसंख्यक जनजाति के श्रेणी में रखा गया गया है । झारखण्ड में इसकी आबादी मात्र 7514 है (2011 के जनगणना के अनुसार)। सबसे ज्यादा इसकी जनसंख्या हज़ारीबाग जिले में है। इसके अलावा ये चतरा, कोडरमा, सिमडेगा, गुमला में पाया जाता है।

प्रजातीय दृष्टि से ये प्रोटो-ऑस्ट्रलोयड वर्ग में आते है। इसकी भाषा बिरहोरी है। बिरहोरी मुंडा भाषा की एक उपभाषा है। बिरहोरी भाषा को होड़को भी कहा जाता है। बिरहोरी मुंडा भाषा परिवार (आस्ट्रिक/ऑस्ट्रो-एशियाटिक) के अंतर्गत आता है।

चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान ढेबर आयोग का गठन जनजातियो की स्थिति की जाँच के लिए बनाई गई थी। इस रिपोर्ट के आधार पर जनजातियों का एक नया वर्ग आदिम जनजाति बनाया गया। आदिम जनजाति में वर्गों को रखा गया जो बहुत ही पिछड़ा वर्ग है। बिरहोर को भी आदिम जनजाति के श्रेणी में रखा गया।

गोत्र

इनमे कई गोत्र पाए जाते है जैसे:- इंदवार, खेर, गीध, गोलवार, सगलाकुडचटा, करकेटा, टोपवार, सिंगपुरिया, हेम्ब्रम, सबर, सवरिया, हंसदा, भुइयाँ इत्यादि।

निवास स्थान

बिरोहर छोटी छोटी बस्तियों में पाए जाते है जिसमे 6-7 झोपड़ीनुमा घर होते है, इसे टांडा/तोला/बंद कहा जाता है। इस झोपड़ीनुमा घर को “कुम्बा” कहा जाता है। आज सरकार के प्रयास से इनके पक्के मकान बनाये गए है। ये एकल परिवार में रहते है जिसमे पति-पत्नी और अविवाहित बच्चे होते है। युवाओं के लिए युवगृह बनाये जाते है जिसे गीतिओड़ा कहा जाता है। युवागृह में पुरुषों के निवास स्थान को “डोंडा कांठा” तथा महिलाओं के निवास स्थान को “डुंडी कुंठी” कहा जाता है। युवागृह में प्रवेश की उम्र 10 वर्ष निर्धारित है।

उपवर्ग

बिरहोर को दो उपवर्ग में बाँटा गया है a) उलथु और b) जाँघी

उलथु – इस उपवर्ग को भूलियास भी कहा जाता है। ये घुमक्कड़ होते है। एक जगह स्थायी रूप से निवास नही करते। इसकी जीविका पूरी तरह से वनोत्पाद और शिकार पर निर्भर होते है। ये मुख्य रूप से बंदरो का शिकार करते है। अतः यह मान्यता चली आ रही है कि जिस पेड़ को बिरहोर छू लेते है उस पेड़ पर बंदर कभी नही चढ़ता। बंदर का मांस इसका प्रिय भोजन है। ये खाद्य-संग्रहण पर निर्भर रहते है। ये “लूट लाओ और कूट खाओ” नीति का अनुसरण करते है। ये बिरहोरों का पुराना स्वरूप है।

जाँघी – कुछ बिरहोर समय के साथ स्थायी जीवन जीने लगे और स्थायी कृषि करने लगे वो जाँघी बिरहोर कहलाये। जाँघी बिरहोर को थानिया बिरहोर भी कहा जाता है। इनकी भूमि समुदायिक होती है। कृषि भूमि को तीन भागों में बाँटा गया है- बेड़ा (उच्च भूमि), बादी (मध्यम भूमि) और गोड़ा (निम्न भूमि जो सबसे उपजाऊ होती)। रस्सी बनाने (मुख्यतः मोहलाइन के छाल से) और बाँस के टोकरी के व्यवसाय से बहुत से बिरहोर जुड़े हुए है।

धार्मिक जीवन

बिरहोर के मुख्य देवता सिंगबोंगा है जिसे सूर्य के समरूप माना जाता है। देवी माय और बूढ़ही माय बिरहोरों की मातृ देवी होती है। शिकार देवता को “चंडी” और पहाड़ देवता को “महली चोटी” कहते है। बीमारी से बचने के लिए ये बुरु बोंगा और ओटा बोंगा की पूजा करते है। जाँघी बिरहोर बुरु बोंगा और उलथु बिरहोर ओटा बोंगा की पूजा करते है। कुछ जानवरो के नाम से इनके देवता पाए जाते है जैसे’- बाघवीर, हुंड़ारवीर, हनुमानवीर।

पर्व-त्यौहार

उलथु बिरोहर के पर्व-त्यौहार बहुत कम होते क्योंकि ये खानाबदोश होते है। एक जगह से दूसरे जगह भ्रमण करते रहते इसलिए पर्व-त्यौहार में ज्यादा रुचि नही रखते। जाँघी बिरहोर सितंबर माह में “करमा उत्सव” मनाते है और इस उत्सव के बाद 12वें दिन परिवार की सभी विवाहित महिला उपवास रखती है। आश्विन महीने में “देसाई उत्सव” मनाते है जिसमें घर के सारे सदस्य उपवास रखते है। नया अन्न ग्रहण के उपलक्ष्य में “नवाजोम या नवा तिहार” उत्सव मनाते है। “छेरता” त्यौहार को भी ये बड़े धूमधाम से मनाते है।

नृत्य-संगीत

बिरहोरों में डोंग, लागरी और मुतकर, बिहाव नाच ये नृत्य प्रचलित है। तुमदा ( ढोल), तमक (नगाड़ा) और तिरियो (बाँसुरी) इसके प्रमुख वाद्य यंत्र है।

सामाजिक जीवन

समगोत्रीय विवाह वर्जित है। बहुविवाह की प्रथा पाई जाती है। विवाह के कई स्वरूप पाए जाते है जैसे – सदर बापला (क्रय विवाह), नाम-नापम बापला, उदरा-उदरी बापला (हरण विवाह), बोलो बापला (हठ विवाह), सिंदूर बापला, हिरूम बापला, कीरिंग जवाई बापला (सेवा विवाह), सांगा बापला (पुनर्विवाह) हेसम बापला (बहुविवाह), गोलहर बापला (गोलट विवाह)। सदर बापला को सर्वश्रेष्ठ विवाह माना जाता है। सदर बापला दोनो पक्षों के आम सहमति से वधुमूल्य परम्परा के साथ विवाह संपन्न होता है। वधुमूल्य को “सुक” कहा जाता है।

गर्भवती महिला का प्रसव सामान्य निवास में न कराकर कुर्मा या कुड़िया नामक झोपड़ी बनाकर कराया जाता है। प्रसव कराने वाली महिला को “कुसेर दाई” या “सुइन” के नाम से जाना जाता है। प्रसव के दौरान गर्भवती महिला को एक माह तक कुड़िया में रहना पड़ता है और उसे घर का कोई काम करने नही दिया जाता है। बच्चे जन्म के सातवें दिन पे छठी मनाया जाता है तथा जच्चा-बच्चा को सूर्य का दर्शन कराया जाता है।

बिरहोर समाज पितृसत्तात्मक होता है। पिता की संपत्ति में उसके बेटे का अधिकार होता है किंतु हिस्से के समय बड़े बेटे को ज्यादा मिलता है। अगर पिता की दो पत्नी हो तो पहले पत्नी के बेटे को ज्यादा हिस्सा मिलता है।

राजनीतिक जीवन

टांडा ( बिरहोर का टोला) का प्रमुख मालिक या नाये कहलाता है। यह टांडा का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति होता है। नाये का पद वंशानुगत होता है। यह पूरे टांडा के प्रशासन को देखता है। नाये को सहयोग देने के लिए दिगुआर या कोतवाल का एक पद होता है। टांडा के आपसी विवाद को नाये सुलझाता है। पाहन धार्मिक प्रधान होता है जो जड़ी-बूटी, तंत्र-मंत्र,और धर्म का जानकार होता है।

Birhor Tribes Video

https://youtu.be/9t3j4njP7x4

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