सरदारी विद्रोह
Sardari Movement
परिचय – सरदारी आंदोलन को मातृभूमि की लड़ाई (मुल्की लड़ाई) तथा जमीन की लड़ाई (मिल्की लड़ाई) भी कहा जाता है। हो विद्रोह तथा कोल विद्रोह के दौरान उत्पीड़न के कारण छोटानागपुर से बहुत से आदिवासियों ने असम के चाय बागानों की तरफ पलायन कर लिया था तथा वहीं बस गए थे। इसकी अनुपस्थिति के कारण दूसरे लोगों ने उसकी जमीन को हथिया लिया था कुछ वर्ष बाद जब वे लौटकर अपने जमीन पर वापस आए तो जमीन के नए मालिकों ने जमीन लौटाने से इनकार कर दिया। अपनी मातृभूमि और अपनी जमीन को पाने के लिए आदिवासियों ने लगभग 40 वर्ष लंबी लड़ाई लड़ी, इस लड़ाई को सरदारी आंदोलन कहा जाता है। इस लड़ाई में मुख्य रूप से उराव और मुंडा जाति के लोग शामिल थे। इस आंदोलन का नेतृत्व विभिन्न कोल सरदारों ने किया था।
Introduction – The Sardari movement is also called the fight for the motherland (Mulki fight) and the fight for the land (Milki fight). Due to persecution during the Ho rebellion and Kol rebellion, many tribals from Chhotanagpur had migrated to the tea gardens of Assam and settled there. Due to its absence, other people had grabbed his land. After a few years, when he returned to his land, the new owners of the land refused to return the land. To get their motherland and their land, the tribals fought a long battle of about 40 years, this fight is called Sardari Movement. Mainly people of Orav and Munda castes were involved in this fight. This movement was led by various Kol Sardars.
सरदारी आंदोलन की अवधि – यह आंदोलन 1858 से 1895 ई तक चला था। सरदारी लड़ाई को तीन चरणों में विभाजित किया जाता है प्रथम चरण 1858-81 ई, द्वितीय चरण 1881-90 ई, तृतीय चरण 1890 -95 ई तक चला।
Period of Sardari Movement – This movement lasted from 1858 to 1895 AD. The Sardari fight is divided into three phases, the first phase lasted from 1858-81 AD, the second phase from 1881-90 AD, the third phase from 1890-95 AD.
प्रथम चरण ( 1858 से 1895)
सरदारी आंदोलन के प्रथम चरण को भूमि आंदोलन कहा जाता है। यह आंदोलन छोटा नागपुर के आदिवासियों के भू समस्या को मिटाने के लिए किया गया था। इस आंदोलन की शुरुआत छोटानागपुर खास से हुआ। सोनपुर, बसिया, दोइसा, खुखरा इस आंदोलन का मुख्य केंद्र था।
भूमि आंदोलन के प्रसार को देखते हुए सरकार ने भुईहरी जमीन के सर्वेक्षण का निर्णय लिया। इस सर्वेक्षण की जिम्मेवारी लाल लोकनाथ को दी गई। इसी सर्वेक्षण के आधार पर कंपनी सरकार ने 1869 में छोटा नागपुर टेन्यूर्स एक्ट पारित किया जिसके अनुसार पिछले 20 वर्षों में जिन रैयतो की भूइहरी जमीन छीनी गई थी उन्हें जमीन वापस लौटाया जाना था। जमीन लौटाने की प्रक्रिया 1880 तक चली। इस से छोटा नागपुर के 25 परगने के 2,482 गांव लाभान्वित हुए। इस तरह इसके द्वारा भूईहरी एवं मांझियस जमीन संबंधी विवादों का अंत हुआ।
इस व्यवस्था से भी कोल सरदारों को संतुष्ट नहीं कर पाई क्योंकि यहां सिर्फ भुईहरी जमीन की बात की गई थी। इसके अलावा इस क्षेत्र में कोडकर, खुटकट्टी, राजहंस भूमि थे जिसके लेकर कोई प्रयास नहीं किया गया था। 1850 ई के बाद छोटा नागपुर में अनेक आदिवासियों द्वारा ईसाई धर्म अपना लेन के कारण भूमि संबंधी समस्या उत्पन्न हुई थी।
कोल आंदोलन के समय जमीन से वंचित किए गए आदिवासियों को जमीन अभी तक वापस लौट आया नहीं गया था। आदिवासियों ने ईसाई धर्म भी इसी उद्देश्य ग्रहण किया था कि उन्हें भूमि संबंधी समस्याओं से छुटकारा प्राप्त होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। अतः बाह्य धर्म के प्रभाव से बचने तथा जमींदारों के शोषण के खिलाफ 1858 ई में यह विद्रोह प्रारंभ हो गया था। इस लड़ाई का मूल उद्देश्य जमींदारों को भगाना, बैठ बेगारी को खत्म करना, राजहंस जमीन पर मनमाने लगान वृद्धि जैसे कानून खत्म करवाना तथा अन्य भूमि संबंधी प्रतिबंधों को समाप्त करना था।
First phase (1858 to 1895)
The first phase of the Sardari movement is called the land movement. This movement was done to eliminate the land problem of the tribals of Chhota Nagpur. This movement started from Chhotanagpur Khas. Sonpur, Basia, Doisa, Khukhra were the main centers of this movement. In view of the spread of the land movement, the government decided to survey the Bhuihari land. The responsibility of this survey was given to Lal Loknath. On the basis of this survey, the Company Government passed the Chhota Nagpur Tenures Act in 1869, according to which the land was to be returned to the ryots whose land had been snatched away in the last 20 years. The land was to be returned to them. The process of returning the land continued until 1880. 2,482 villages in 25 parganas of Chhota Nagpur benefited from this. In this way, the disputes related to Bhuihari and Manjhiyas land came to an end.
Even this arrangement could not satisfy the Kol Sardars because here only Bhuihari land was discussed. Apart from this, there were Kodkar, Khutkatti, Rajhans lands in this area for which no efforts were made. After 1850 AD, land related problems arose in Chhota Nagpur due to many tribals adopting Christianity.
The land had not yet been returned to the tribals who were deprived of their land during the coal movement. The tribals also adopted Christianity with the aim of getting relief from land related problems. Therefore, this rebellion started in 1858 AD to avoid the influence of outside religion and against the exploitation of landlords. The basic objective of this fight was to drive away the landlords, end forced labour, abolish laws like arbitrary increase in rent on Rajhans land and end other land related restrictions.
द्वितीय चरण (1881 से 1890 ई)
सरदारी आंदोलन के दूसरे चरण को पुनरुत्थानवादी आंदोलन कहा जाता हैं। आंदोलन की इस चरण में आदिवासी अपने पुराने मूल्यों एवं परंपराओं की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष करने लगे थे। 1879 ई की एक याचिका में मुंडा व ने दावा किया कि छोटानागपुर उनका है। 1881 ई में जॉन बेपहिस्ट के नेतृत्व में कोल सरदारों के एक दल ने विद्रोह कर दिया था तथा दोइसा पर अधिकार कर लिया था। कोल सरदारों ने छोटानागपुर खास राज्य की पुरानी राजधानी दोइसा में स्थापित कर छोटानागपुर को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया था। सारे विद्रोही को बंदी बना लिया गया तथा सजा दी गई। 1886-87 ई में लूथरन मिशन के नोट्रोट ने इन आदिवासियों को समर्थन किया था।
Second phase (1881 to 1890)
The second phase of the Sardari movement is called the revivalist movement. In this phase of the movement, the tribals started struggling for the restoration of their old values and traditions. In a petition dated 1879 AD, the Mundas claimed that Chhotanagpur belonged to them. In 1881 AD, a group of Kol chieftains under the leadership of John Baptist revolted and took control of Doisa. The Kol Sardars established the old capital of Chhotanagpur Khas State in Doisa and declared Chhotanagpur an independent state. All the rebels were captured and punished. In 1886-87, Notrot of Lutheran Mission supported these tribals.
तीसरा चरण (1890 से 1895 ई)
सरदारी आंदोलन का तीसरा चरण राजनीतिक आंदोलन कहलाता है। आदिवासी अपने जमीन से अभी भी बेदखल थे। अपने फरियाद को लेकर आदिवासी विभिन्न मिशनरियों के पास गए जैसे जर्मन लूथरन मिशन के डॉ नोट्रोट, रोमन कैथोलिक मिशन के लीमेंस, जर्मन लूथरन मिशन के बोर्डीएंड, जोहान, एलिजबर। जमीन वापसी के आशा में आदिवासियों ने ईसाई धर्म को भी अपनाया लेकिन इनकी समस्या ईसाई मिशनरियों ने नहीं सुनी। इसलिए मिशनरियों से आदिवासियों का मोहभंग हो गया। वकीलों ने भी न्याय दिलाने के नाम पर आदिवासियों से एक लाख रुपैया ठग लिया। इससे न्यायालयों के प्रति आदिवासियों का मोहभंग हो गया और आदिवासियों ने कानूनी रास्ता त्याग दिया। इसी तरह आदिवासी ब्रिटिश शासन के अधिकारियों, कर्मचारियों को भी अपना शत्रु मानने लगे थे क्योंकि वे जमींदारों और दिकुओ के मदद करते थे। हर तरह से थक हार कर आदिवासियों ने अपनी लड़ाई खुद अपनों के सहारे लड़ने का निर्णय किया। आदिवासियों ने निर्णय लिया कि समस्त विदेशियों परदेसियों को मार डाला जाए।
1890 ई के आते-आते इस आंदोलन का स्वरूप पूरी तरह से राजनीतिक हो गया। इस समय तक कोल सरदार अंग्रेजों, मिशनरियों, जमींदारों, दिकुओ सभी का विरोध करने लगे थे। उनका मानना था कि उनके सारी समस्याओं का जड़ ब्रिटिश कंपनी का शासन था। अतः 1892 ई में कोल सरदारों द्वारा ईसाई मिशनरियों की हत्या का षडयंत्र रचा गया था लेकिन यह षड्यंत्र कार्य रूप नहीं ले सका था। इस समय आदिवासियों को नेतृत्व प्रदान करने का कोई बड़ा नेता नहीं मिला । जब बिरसा मुंडा ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का आह्वान कर दिया था तब सरदारी आंदोलन के सारे कोल सरदार बिरसा आंदोलन में शामिल हो गए। इन सरदारों के प्रभाव से बिरसा आंदोलन का स्वरूप भी राजनीतिक हो गया था। बिरसा मुंडा आंदोलन के प्रारंभ के साथ ही सरदारी आंदोलन समाप्त हो चुका था।
Third phase (1890 to 1895 AD) – The third phase of Sardari movement is called political movement. The tribals were still evicted from their lands. With their grievances the tribals went to various missionaries like Dr. Notrot of the German Lutheran Mission, Leemens of the Roman Catholic Mission, Bordiend, Johann, Elisabeth of the German Lutheran Mission. In the hope of returning their land, the tribals also adopted Christianity but their problems were not heard by the Christian missionaries. Therefore the tribals became disillusioned with the missionaries. The lawyers also cheated one lakh rupees from the tribals in the name of providing justice. This led to disillusionment among the tribals towards the courts and the tribals abandoned the legal path. Similarly, the tribals also started considering the officers and employees of the British rule as their enemies because they used to help the landlords and dikus. Due to the influence of these Sardars, the nature of Birsa movement also became political. The Sardari movement had ended with the beginning of the Birsa Munda movement.
By 1890, the nature of this movement became completely political. By this time the Kol Sardars had started opposing the British, the missionaries, the landlords and the Dikus. He believed that the root of all his problems was the rule of the British Company. Therefore, in 1892 AD, a conspiracy was hatched by the Kol chieftains to kill Christian missionaries but this conspiracy could not materialise. At this time no big leader was found to provide leadership to the tribals. When Birsa Munda had called for rebellion against the British, all the Kol Sardars of the Sardari movement joined the Birsa movement. Due to the influence of these Sardars, the nature of Birsa movement also became political. The Sardari movement had ended with the beginning of the Birsa Munda movement.
सरदारी विद्रोह Sardari Movement
सरदारी आंदोलन से संबंधित तथ्य
1) बिरसा मुंडा का सेनापति गया मुंडा सरदारी आंदोलन से जुड़ा हुआ था।
1) Birsa Munda’s commander Gaya Munda was associated with the Sardari movement.
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