Jharkhand Movement after 1947

1947 ई के बाद झारखण्ड में हुए विद्रोह | Jharkhand Movement after 1947

Jharkhand Revolt

1947 के बाद झारखंड में हुए आंदोलन

Jharkhand Movement after 1947

खरवार जंगल आंदोलन

यह आंदोलन खरवार जाती द्वारा भारत सरकार द्वारा बनाये गए नए वन अधिनियम के खिलाफ चलाया गया। यह आंदोलन 1950-58 में फेटल सिंह के नेतृत्व में चलाया गया। इस विद्रोह का मुख्य केंद्र बलियागढ़ (पलामू) था।

इस विद्रोह की माँग

1) जंगल कर की समाप्ति।

2) बंजर जमीन पर खेती का अधिकार।

3) गैर-मजरुआ जमीन पर अधिकार।

फेटल सिंह को इस आंदोलन की प्रेरणा सरगुजा (छतीसगढ़) के खाविग्राम जंगल मे चुन्नी के नेतृत्व में इसी तरह के चल रहे आंदोलन से मिली थी। 1958 में जब यह आंदोलन हिंसात्मक हो जाता है तब सारे आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। और यह आंदोलन बिना किसी परिणाम के समाप्त हो जाता है।

कोल्हानिस्तान देश की माँग

30 मार्च 1980 में “कोल्हान रक्षा संघ” नामक संगठन के नेतृत्व में चाईबासा में हो आदिवासियों की एक बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हुई। इस भीड़ का नेतृत्व कृष्ण चंद्र हेमब्रोम, मनोहर टोपनो और नारायण जोनको के नेतृत्व में अलग कोल्हानिस्तान देश की माँग की। इन लोगो में 1937 के विल्किंसन रूल के आधार पर यह माँग की। इस रूल के तहत विल्किंसन ने SWFA से अलग कर के “Kolhan Seperate Estate” की स्थापना की गई थी, इस एस्टेट का मुख्यालय चाईबासा को बनाया गया था। जिसमे मुंडा-मानकी शासन व्यवस्था की स्थापना की गई थी। उपरोक्त तीनो नेताओ पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। बाद में रामु बिरुआ नामक एक व्यक्ति ने खुद को कोल्हानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया था, जिसे पुलिस ने हिरासत में ले लिया था और हिरासत में ही उसकी मौत हो गई थी।

जादूगोड़ा आन्दोलन

आंदोलन यह आंदोलन 1992 में हुआ था। पूर्वी सिंहभूम के जादूगोड़ा क्षेत्र से यूरेनियम के कच्चा माल को process के लिए कोलकाता और हैदराबाद भेजा जाता था। वहां से बचे यूरेनियम के अवशेष को वापस जादूगोड़ा के आसपास के स्थित दो Tailing Pond फेंक दिया जाता था। इस अवशेषों के रेडियोधर्मी प्रभाव से इस क्षेत्र में विकलांगता, नपुंसकता, कैंसर, ल्यूकेमिया जैसी अनेक बीमारियां फैलने लगी। इससे इस क्षेत्र के निवासी त्रस्त हो चुके थे। 1993 में जब चाटीकोचा गांव में तीसरा Tailing Pondबनाने की शुरुआत हुई उस समय स्थानीय लोगों ने UCIL के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन को जादूगोड़ा आंदोलन के नाम से जाना जाता है।

नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के खिलाफ आंदोलन

यह आंदोलन 1993 में शुरू हुआ जब केंद्र सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत गुमला-नेतरहाट जिले के बरवा और छेछाड़ी क्षेत्र में नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज बनाना शुरू किया। इस आंदोलन में “जान देंगे मगर जमीन नहीं देंगे” नारा के साथ आंदोलन किया गया। आंदोलन के बाद नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज को बंद करना पड़ा। “जनसंघर्ष समिति” नामक संस्था ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया था।

शंख पनबिजली परियोजना के खिलाफ आंदोलन

यह विद्रोह 1994 में गुमला जिला के बरवा क्षैत्र में हुआ था। सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान शंख पनबिजली परियोजना को चालू करने का निर्णय किया गया था।

समरसोत वन्यजीव अभयारण्य के खिलाफ आंदोलन

यह आंदोलन 1996 में छत्तीसगढ़ के सरगुजा (वर्तमान में बलरामपुर) में बनाए जाने वाले समरसोत वन्य जीव अभ्यारण के खिलाफ था। इस अभयारण्य का कुछ भाग झारखंड के गुमला जिला में भी था। यह आंदोलन मुख्य रूप से गुमला जिला में चलाया गया था।

सिंहभूम जंगल काटो आंदोलन

या आंदोलन 1978 में सिंहभूम के पोरहाट और कोल्हान क्षेत्र में हुआ था। नए कानून बन जाने के बाद जंगल में सरकार के हस्तक्षेप बढ़ जाने के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ था। इस आंदोलन में आदिवासी लोग पेड़ों को काटने लगे थे। इस आंदोलन का मुख्य नेतृत्वकर्ता देवेंद्र माझी था। बाद में इस आंदोलन में झारखंड मुक्ति मोर्चा भी शामिल हुआ। शिबू सोरेन और देवेंद्र मांझी ने मिलकर इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा इस आंदोलन से अलग हो गया। देवेंद्र मांझी ने एक अलग राजनीतिक पार्टी JMM (D) की स्थापना की। कुछ समय के बाद इस पार्टी का विलय में हो गया था। इस आंदोलन के दौरान पुलिस ने कई स्थानों पर फायरिंग की थी। गुआ में की गई फायरिंग सबसे खतरनाक की जिसमें 12 लोगों की मृत्यु हुई थी।

स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना के खिलाफ आंदोलन

यह आंदोलन भी 1978 में हुआ था। गंगाराम कालुंडिया ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था जो पुलिस फायरिंग में मारा जाता है। इस आंदोलन की वजह से वर्ल्ड बैंक ने इस परियोजना में आर्थिक सहायता देना बंद कर दिया था।

कुटकू आंदोलन

यह आंदोलन 1985 में हुआ था। उत्तर कारों कोयल जल परियोजना के अंतर्गत कुटकू नामक स्थान पर एक बांध बनाने की परियोजना थी। इस परियोजना के तहत कई गांव का विस्थापन होना था जिस वजह से यह आंदोलन शुरू हुआ था। इस डैम के वजह से बेतला राष्ट्रीय उद्यान के कुछ क्षेत्र भी प्रभावित होंगे। हालांकि इस परियोजना को पुनः शुरू किया गया है।

कोयल कारो जल विद्युत परियोजना के खिलाफ आंदोलन

यह आंदोलन 1972 73 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन जनसंख्या विस्थापन के खिलाफ शुरू हुआ था। इस आंदोलन के वजह से यह प्रोजेक्ट पूरी तरह से बंद हो चुका है।

आर्सेलर मित्तल के खिलाफ़ आन्दोलन

यह आंदोलन आर्सेलर मित्तल के द्वारा खूंटी जिले में लगाए जाने वाले स्टील प्लांट के खिलाफ था। इस आंदोलन का नेतृत्व दयामणि बरला ने किया था। इस आंदोलन को दयामणि बरला ने अपने संस्थान “आदिवासी मूलनिवासी अस्तित्व रक्षा मंच” के द्वारा किया था।

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https://youtu.be/Rtp0i5eHR4U

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