1857 Revolt In Jharkhand

झारखंड में 1857 का सिपाही विद्रोह | 1857 Freedom Struggle In Jharkhand

Freedom Struggle In JharkhandJharkhand GK

झारखंड में 1857 का सिपाही विद्रोह

आरम्भ

Begining Of 1857 Revolt In Jharkhand- झारखंड में सिपाही विद्रोह का आरंभ तत्कालीन संताल परगना जिला के रोहिणी गाँव में हुआ था। यह स्थान आज देवघर जिला के जसीडीह के निकट अजय नदी के किनारे स्थित है। इसकी 12 जून 1857 को 5वीं देशी अनियमित घुड़सवार सेना के कुछ जवानों ने किया था। रोहिणी में 32वी रेजिमेंट का मुख्यालय था। इस रेजीमेंट के Commanding Officer मैकडोनाल्ड थे। मेजर मैकडोनाल्ड शाम को अपने बरामदे में लेफ्टिनेंट सर नार्मन लेस्ली और सहायक सर्जन मिस्टर ग्रांट चाय पी रहे थे उस समय तीन सिपाही ने हमला कर दिया जिससे मौके पर ही नॉर्मन लेस्ली मारा गया और ग्रांट और मैकडोनाल्ड घायल हो गया।

तीनो सिपाही सलामत अली, अमानत अली, हारून शेख का कोर्ट मार्शल करके फांसी की सजा सुनाई गई। हाथी के ऊपर चढ़ा कर तीनो को पेड़ की टहनी पे फाँसी दे दिया गया। इमाम खान ने इन तीनों विद्रोहियों के खिलाफ गवाही दी थी इस घटना से पूरे सैनिकों में आक्रोश फैल गया और 9 अक्टूबर 1857 को सिपाहियों ने सामूहिक विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को मैकडोनाल्ड ने दबा दिया।

जब यह विद्रोह छिड़ा तब संथाल समाज के लोगों ने अंग्रेजो की कोठियों को लूटना शुरू कर दिया था। इस लूटपाट को रोकने के लिए 300 संताल लोगो की टुकड़ी बनाई गई थी। इस टुकड़ी को देवघर और पाकुड़ में तैनात की गई थी।

इस विद्रोह के कारण 32 वीं रेजीमेंट का मुख्यालय राँची से भागलपुर कर दिया गया।

विद्रोह का हज़ारीबाग में प्रसार

1857 Revolt In Jharkhand (Hazaribag)- दानापुर कैंट के सिपाहियों ने 25 जुलाई 1857 को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव रामगढ़ कैंट पे पड़ा। 30 जुलाई 1857 को रामगढ़ कैंट के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। झारखंड में रोहिणी के बाद सिपाही विद्रोह की यह दूसरी घटना थी। उस समय हज़ारीबाग और चतरा का उपायुक्त या मुख्य सहायक कमिश्नर (Principal Assiatant Commissioner) मेजर सिम्पसन था। विद्रोह शुरू होते ही सिम्पसन, हज़ारीबाग का सैनिक कमांडर असिस्टेंट सर्जन डैलप्रिन्ट सहित सारे अंग्रेज अधिकारी कलकत्ता भाग गए। विद्रोहियों ने अंग्रेज अधिकारीयो के बंगलो, सरकारी दफ्तरो को लूट लिया। जेल से कैदियों को छुड़ाया और खजाने लूट लिए। अंग्रेजो के वफादार रामगढ़ के राजा ने विद्रोहियों द्वारा किये जा रहे लूटपाट की जानकारी तत्कालीन गवर्नर जनरल कैनिंग तक बगोदर तार-घर से पहुँचाया।

विद्रोही सैनिकों ने हज़ारीबाग जेल में बंद संभलपुर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुरेंद्र शाही और उदयंत शाही को जेल से छुड़ा लिया। और विद्रोही सुरेंद्र शाही के नेतृत्व में राँची की और कूच किये। तत्कालीन छोटानागपुर के कमिश्नर डाल्टन ने लेफ्टिनेंट ग्राहम को सैनिक टुकड़ी के साथ हज़ारीबाग के विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजा। इसी सैनिक टुकड़ी का हिस्सा था जमादार माधव सिंह, सुबेदार नादिर अली खान और जयमंगल पांडेय।

इस टुकड़ी का रामगढ़ पहुँचने पर इन तीनो ने ग्राहम के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। लेफ्टिनेंट ग्राहम को जान बचाकर भागना पड़ा। उधर संताल लोग ने भी इस विद्रोह के आड़ में लूटपाट शुरू कर दी कई गाँव और अंग्रेजो, जमीदारों के संपत्ति लूट लिए। झारपो के जमींदार, जो रामगढ़ राजा का संबंधी था, उसके कोठी को संतालों ने तबाह कर दिया। संतालों के इस समूह को लेफ्टिनेंट ग्राहम ने बिखेर दिया। कई संताल गिरफ्तार हुए। गिरफ्तार संतालों ने बयान दिया था कि उनलोगों ने लूटपाट रूपु माँझी के कहने पर किया। हज़ारीबाग में संताल के अलावा भुइयाँ, कुरमी, चुआड़, टिकैत समाज भी विद्रोह के दौरान सक्रिय रहे। ये लोग महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीन को वापस पाने के लिए लड़ रहे थे।

विद्रोही सुरेंद्र शाही के नेतृत्व में पिठोरिया के रास्ते राँची के तरफ कूच कर गए। पिठोरिया के जमींदार जगतपाल सिंह जो अंग्रेजो का चाटुकार था, उसने अपने सिपाहियों को पिठोरिया की घाटी में तैनात कर दिया ताकि विद्रोही राँची न पहुँच सके। इस वजह से विद्रोहियों ने अपना रास्ता बदल दिया अब वो ओमिदंडा के रास्ते से लोहारदग्गा की तरफ निकल पड़े। इसी क्रम में सुरेंद्र शाही ट्रिब्यूटरी महाल के विद्रोहियों से मिल गए तथा उनका झारखंड क्षेत्र के विद्रोह में सक्रिय योगदान खत्म हो गया।

विद्रोह का राँची में प्रसार

1857 Revolt In Jharkhand (Ranchi)

रामगढ़ में हुए विद्रोह को दबाने के लिए कमिश्नर डाल्टन ने राँची के डोरंडा छावनी के एक सैनिक टुकड़ी को लेफ्टिनेंट ग्राहम के नेतृत्व में भेजा था। लेकिन इस टुकड़ी के जवानों ने रामगढ़ पहुँचने पर रामगढ़ के विद्रोही सैनिकों पर गोली चलाना मना कर दिया। इसी टुकड़ी के जमादार माधव सिंह, सूबेदार नादिर अली और सूबेदार जयमंगल पांडेय ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। लेफ्टिनेंट ग्राहम अपने वफादार अमादार खान के मदद से हज़ारीबाग भाग गया। विद्रोहियों ने पूरे कैंट के गोला बारूद, 2 तोप, चार हाथी, घोड़े, पैसे लूट लिए। ये विद्रोही सैनिक राँची की और कूच किये। उधर खटंगा पातर के रहने वाले 12 गाँव के जमींदार उमराव सिंह और उसके भाई घासी सिंह तथा इनके दीवान शेख भिखारी ने अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का एलान कर चुटुपालु घाटी को सील कर दिया ताकि कोई भी सैनिक टुकड़ी राँची प्रवेश न कर सके। ऐसे में कमिश्नर डाल्टन और डोरंडा छावनी के सेनाधिकारी रॉबिन्स राँची से पिठोरिया के रास्ते हज़ारीबाग भाग गए। पिठोरिया घाटी का रास्ता जगतपाल सिंह (अंग्रेजो का सहयोगी) ने इस घाटी को सिपाहियों के कब्जे से बचा के रखा था।

विद्रोही राँची पहुंचकर डिप्टी कमिश्नर ओक्स और कैप्टेन मानक्रिफ के कोठी को आग लगा दिया। कोठी में मौजूद हथियार और धन को लूट लिया। मुख्य सड़क पर स्थित गोस्सनर चर्च पे गोले दागे गए। सारे पादरी हज़ारीबाग भाग गए।

इसके बाद ये विद्रोही डोरंडा छावनी पहुँचे। 2 अगस्त को माधव सिंह, नादिर अली और जयमंगल पांडे ने डोरंडा छावनी पर अपना कब्जा जमा लिया। इस दौरान छावनी में स्थित सारे सैनिकों ने विद्रोही सैनिकों का साथ दिया।

उधर हज़ारीबाग पहुँचकर डाल्टन विद्रोहियों का दमन करने के लिए योजना बनाने लगा। डाल्टन ने स्थानीय जमींदारों और राजाओं को ईनाम और अलंकरण देने के लालच में अपने साथ मिलाया। विद्रोहियों ने आम जनता पर लूटपाट करके जो गलती की थी उसका डाल्टन ने फायदा उठाया। हज़ारीबाग जेल से कैदियों छुड़ाए गए कैदियों को फिर से जेल में डाल दिया। बाजारों को खुलवाया तथा फिर से हज़ारीबाग का जनजीवन सामान्य कर दिया। इससे जनता में सरकार के खिलाफ विश्वास जागा और विद्रोहियों के खिलाफ घृणा। राँची और हज़ारीबाग के विद्रोही सम्भलपुर के विद्रोही से न मिल जाये इसलिए डाल्टन ने लेफ्टिनेंट गवर्नर से निवेदन करके कटक से दो टुकड़ी मंगवा कर संबलपुर में तैनात करवाया। उसके बाद डाल्टन ने पूरे छोटानागपुर में मार्शल लॉ लगा दिया।

इस दौरान विद्रोहियों ने बगोदर, चतरा, शेरघाटी के रास्ते बाबू कुँवर सिंह से मिलने की योजना बनाई। विद्रोहियों को एक नेता की तलाश थी। विद्रोही सैनिक जब एक शक्तिशाली नेतृत्व के आभाव में भटक रहे थे। उस वक्त गणपत रॉय ने विद्रोही सैनिकों की मुलाकात विश्वनाथ शाहदेव से कराया। विश्वनाथ शाहदेव ने इन 600 सैनिकों के साथ मुक्तिवाहिनी सेना का स्थापना किया। गणपत राय इस मुक्तिवाहिनी सेना के प्रधान सेनापति नियुक्त हुए। मुक्तिवाहिनी सेना ने 1 अगस्त 1857 को डोरंडा छावनी पर अधिकार कर लिया। 2 अगस्त को पूरे राँची में मुक्तिवाहिनी सेना का अस्थाई अधिकार हो गया।

ज्यादातर जमींदारों ने अंग्रेजो का साथ दिया इसके बावजूद भी पूरे राँची से ब्रिटिश शासन अंत हो गया। इस दौरान डोरंडा स्थित सारे अंग्रेजो की कोठियों में लूटपाट करके आग लगा दी। कचहरी में आग लगाकर कागजात कुवें में फेंक दिए। खजाना लूट लिया। जेल का ताला तोड़कर सारे कैदियों को छुड़ा लिए। इस दौरान रतनजिया का रामरूप सिंह, सुलगी के जगन्नाथ शाही और जसपुर का शेख़ पहलवान ने इन सबका भरपूर साथ दिया।

चतरा का युद्ध

राँची शहर में कब्जा के बाद विद्रोही 11 सितंबर को बाबू कुँवर सिंह से मिलने चतरा होते हुए शेरघाटी के लिए रवाना हुए। यह खबर सुनते ही डाल्टन बरही पहुँच गया। वहाँ से वफादार जागीरदारों को इकठ्ठा करके विद्रोहियों पर आक्रमण करने की योजना बनाया। 14 सितंबर को विद्रोही रामगढ़ घाट पहुँचे वहाँ अंग्रेजो के वफादार जागीरदार भोला सिंह ने अपने सैनिकों के साथ विद्रोहियों का रास्ता रोके रखा तथा डाल्टन को खबर दिया कि वो यहाँ पर सेना भेजे।

उधर मेजर इंग्लिश ने डोरंडा छावनी पर अधिकार जमा लिया था लेकिन वहाँ से सैनिक पहले ही निकल चुके थे। डाल्टन ने मेजर इंग्लिश को भोला सिंह के मदद के लिए सेना के साथ भेजा।लेकिन भोला सिंह ज्यादा देर तक विद्रोहियों का रास्ता नही रोक सका। 21 सितंबर को बालूमाथ पहुंचे और तीन दिन वही रुकने के बाद चतरा के लिए रवाना हुए 30 सितंबर को चतरा शहर पे पहुँचे। उधर अंग्रेजी सेना भी मेजर इंगलिस के नेतृत्व में चतरा पहुँच गया।

2 October को विद्रोहियों और ब्रिटिश सेना के बीच भयानक लड़ाई हुई जिसे चतरा का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में नादिर अली तोप चलाते-चलाते घायल हुआ। माधव सिंह को युद्ध स्थल से भागना पड़ा। अंग्रेजो ने माधव सिंह पर 1K रुपये का इनाम रखा। माधव सिंह के भाग जाने से विद्रोही कमजोर पड़ गए। विश्वनाथ शाहदेव और जयमंगल पांडेय को भी इस युद्ध से भागना पड़ा। 3 October को नादिर अली और जयमंगल पांडेय पकड़े गए। 4 October को सिम्पसन ने नादिर अली और जयमंगल पांडे को चतरा में आम के पेड़ से फाँसी दे दी गई।

इस लड़ाई में कई ब्रिटिश अधिकारी मारे गए जैसे:- विलियम कैलन, पैट्रिक बर्क, जॉन रियान, जेम्स रियान, जॉन चार्ल्स और डाइनन थे। चतरा की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व मेजर इंग्लिश के अलावे मेजर सिम्पसन, लेफ्टिनेंट अर्ल, लेफ्टिनेंट डौन्ट, सार्जेंट डाइनन थे।

चतरा की लड़ाई में सिख सेना का उपयोग किया गया था। कुल 77 विद्रोही युद्ध के दौरान मारे गए थे। चतरा की लड़ाई में विद्रोहियों के हार के कई कारण थे। जयमंगल पांडेय और विश्वनाथ शाहदेव आशानुसार युद्धस्थल पर न 1000 सैनिक भेज पाए न ही जरूरी सामान। माधव सिंह अपने टुकड़ी को लेकर मौके पे ही भाग गया। विद्रोही। विद्रोहियों को 1 October को सूचना मिल चुकी थी कि मेजर इंग्लिश सिख सैनिक टुकड़ी के साथ चतरा पहुंचने वाला है लेकिन इसपे ध्यान देने के बजाय चतरा शहर में लूटपाट पर ही ध्यान दिया। लूटपाट के वजह से विद्रोहियों ने स्थानीय जनता का विश्वास खो दिया। सिख सैनिकों के पास एनफील्ड राइफल थी जिसकी मारक क्षमता 825 मीटर थी।

विद्रोह का सिंहभूम में प्रसार

सिंहभूम क्षेत्र सिपाही विद्रोह की शुरुआत 3 सितंबर 1857 ई में शुरू हुई। इस दिन चाईबासा सैनिक छावनी में दो सैनिक भगवान सिंह और रामनाथ सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने कंपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यहाँ दो सिपाही जो अंग्रेजो के वफादार थे सूबेदार हरनाथ सिंह और जमादार हर्ष नारायण सिंह ने विद्रोह को रोकने का भरपूर प्रयास किया। विद्रोह के पूर्व ही खबर लगने के कारण चाईबासा के प्रिंसिपल असिस्टेंट कमिश्नर शिश्मोर 5 अगस्त को कोलकाता भाग गए थे। भागने से पहले शिश्मोर ने चाईबासा की जिम्मेदारी सरायकेला के राजा चक्रधर सिंह को सौंपा था। विद्रोही सैनिकों ने सरकारी खजानों से 20 हजार रुपये लूट लिये, हथियारों को अपने कब्जे में ले लिए। जेल का ताला तोड़कर सारे कैदियों को छुड़ा लिया। सारे विद्रोही, राँची के विद्रोहियों से मिलने के लिए राँची की और चल दिये। राँची के रास्ते मे डुमरी चट्टी में संजय नदी को पार करना चाहा लेकिन नदी उफान पे थी जिससे विद्रोही आगे नही बढ़ पा रहे थे। उधर अंग्रेजो के दो पिछलग्गू सरायकेला के राजा चक्रधर सिंह और खरसवाँ के राजा हरि सिंह ने सिपाहियों को आगे बढ़ने नही रोक रखा था। इन दोनों ने दो तोप और 300 लड़ाके विद्रोहियों के रास्ता को रोकने में लगा रखे थे। इस मुश्किल वक्त अर्जुन सिंह ने अपने दीवान जग्गू को दो हाथी के साथ सिपाहियों के मदद के लिए भेजा। हाथी के मदद से चैनपुर के बाबू घाट से 7 सितंबर 1857 को विद्रोहियों ने संजय नदी पार किया। जग्गू दीवान ने विद्रोहियों को चक्रधरपुर चलकर राजा अर्जुन सिंह की सेवा में शामिल होने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को विद्रोहियों ने मान लिया। अर्जुन सिंह ने पौरी देवी को साक्षी मानकर विश्वासघात न करने की कसम खाई। विद्रोहियों ने लुटे हुए खजाना और हथियार अर्जुन सिंह को सौप दिया। सिपाहियों के वेतन 5 रु प्रतिमाह तय किया गया।

उधर शिश्मोर के कोलकाता भाग जाने के कारण लेफ्टिनेंट गवर्नर हैलिडे ने आर सी बर्च , जो उस समय पलामू का सब डिविजनल ऑफिसर था,को सिंहभूम का जिलाधीश नियुक्त किया। कैप्टन ओक्स को सिख सैनिकों की टुकड़ी को लेकर आर सी बर्च की मदद करने के लिए भेजा गया। कैप्टन ओक्स ने अर्जुन सिंह को विद्रोहियों के साथ-साथ खजाना और हथियार लेकर चाईबासा में आत्मसमर्पण करने को कहा। ऐसा न करने पर उसे फाँसी में चढ़ा देने की धमकी दी। मगर अर्जुन सिंह ने 17 सितंबर 1857 में डुगडुगी पिटवा कर खुद को सिंहभूम का राजा घोषित कर दिया। बर्च ने अर्जुन सिंह के ऊपर 1000 रु का इनाम रख दिया। बर्च की कठोरता से पेश आने के कारण परिस्थितिया अर्जुन सिंह के खिलाफ हो गई।

अर्जुन सिंह ने राँची जाकर छोटानागपुर के कमिश्नर डाल्टन के समक्ष आत्मसमर्पण का निर्णय लिया। 17 October 1857 में राँची पहुचने पर मद्रासी सैनिकों के मदद से विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया। बहुत ही कम समय मे विद्रोहियों का कोर्ट मार्शल करके सजा सुना दी गई। 20 सैनिकों को फाँसी की सजा, 14 सैनिकों को कठोर कारावास और बाकी सैनिकों की सजा हरनाथ सिंह और हर्ष नारायण सिंह के चाईबासा से राँची आने तक स्थगित कर दी गई। जिन विद्रोहियों को फाँसी की सजा हुई उसे 20 October 1857 को फाँसी दे दी गई। जिस स्थल पर यह फाँसी दी गई उस स्थल को आज “शहिद चौक” कहा जाता है।

इस घटना से अर्जुन सिंह को बहुत धक्का लगा। उसी समय उसके बेटे की अकाल मृत्यु हो गई। यह पौरी देवी की शपथ न मानने के वजह से हुआ, ऐसा वो सोचने लगे। पुनः चाईबासा पहुँच कर अंग्रेजो के खिलाफ गोला-बारूद बनवाने करने लगे। अंग्रेजो के खिलाफ यह अभियान नवंबर 1857 से फरवरी1859 तक जारी रखा।

20 नवंबर 1857 ई को कैप्टन हेल ने सिख सैनिकों के साथ चक्रधरपुर को कब्जा में ले लिया। जग्गू दीवान पकड़ा गया और उसे उसी दिन 20 नवंबर 1857 को ही फाँसी में चढ़ा दिया। 21 नवंबर 1857 को आर सी बर्च ने पोरहाट राजमहल को कब्जा कर उसमें आग लगा दिया। लेकिन अर्जुन सिंह राजमहल से भाग गया।

राजमहल से निकलने के बाद अर्जुन सिंह ने हो जनजाति के मुंडा-मानकियो से मिला। अजोधिया गाँव के एक सभा में मुंडा-मानकियों ने अर्जुन सिंह का साथ देने का वादा किया। विद्रोह के प्रतीक के रूप में तीर गांव-गांव में घुमाया गया। जिससे हो के अलावा सिंहभूम के सारी जातियां धीरे-धीरे अर्जुन सिंह के साथ हो गया। विद्रोहियों ने सुखना तांती नामक एक सरकारी कर्मचारी की हत्या कर दी।

बैद्यनाथ सिंह और उसके दीवान रघुदेव ने केरा के ठाकुर, जो अंग्रेजो के समर्थक थे, के घर और केरा बाजार को लूट लिया। विद्रोहियों ने चक्रधरपुर में ठहरे सरायकेला के राजा चक्रधर सिंह और उसके 200 सैनिकों को मार भगाया, इस दौरान कुछ सिख सैनिक को भी मार गिराया। विद्रोहियों से सिख सैनिक के मौत की सजा देने के लिए कंपनी की सेना जयंतगढ़ की तरफ बड़े, रास्ते मे एक नाले को पार करने के दौरान विद्रोहियों ने अचानक ने इस सैनिक टुकड़ी पर हमला किया। कैप्टन हेल घायल हुए, आर सी बर्च को बांह में तीर लगी। विशेष आयुक्त लूसिंगटन और अंग्रेज अधिकारी हेज भी घायल हुए।

सिंहभूम में अंग्रेजो की स्थिति खराब होने के बाद स्थिति में काबू पाने के लिए कर्नल फास्टर को भेजा गया। कर्नल फास्टर शेखावाटी बटालियन के साथ 17 जनवरी 1858 को रानीगंज से चाईबासा पहुंचे। फास्टर के सैनिक कार्यवाही के बाद विद्रोह कमजोर होने लगा। अपने ससुर, जो मयूरभंज के राजा थे, के हस्तक्षेप के बाद 15 फरवरी 1859 को अर्जुन सिंह ने छोटानागपुर कमिश्नर डाल्टन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। अर्जुन सिंह को बनारस जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद जब राज्य वापस किया गया तब वह सिंहभूम नही लौटा, बनारस में ही मृत्यु का वरण करना अच्छा समझा।

विद्रोह का मानभूम में प्रसार

संताल परगना, हज़ारीबाग और राँची का सिपाही विद्रोह ने काफी गंभीर रूप धारण कर लिया था। इसकी खबर जब पुरुलिया के प्रिंसिपल असिस्टेंट कमिश्नर जी एन ओक्स को लगी तो उन्होंने छोटानागपुर कमिश्नर डाल्टन से सैनिक सहायता माँगी क्योकि मानभूम में कुछ ही सैनिक थे जो अन्य कामो में लगे थे। सैनिक सहायता आने से पहले ही यहाँ के सैनिकों ने 5 अगस्त 1957 को पुरुलिया में विद्रोह कर दिया। ओक्स समेत सभी बड़े अंग्रेज अधिकारी रानीगंज भाग गए। विद्रोहियों ने जेल से कैदियों को निकाला, खजाने को लूटा, सरकारी दस्तावेजों को आग लगा दिया। पुरुलिया शहर में खूब लूटपाट मचाई और विद्रोही सैनिक राँची की और रवाना हो गए।

विद्रोह के एक माह बाद ओक्स पुरुलिया लौट आये। 16 सितंबर 1857 को ओक्स ने डाल्टन को उन राजा/जमींदारों की सूची भेजी जो कंपनी के मदद करेंगे इस सूची में थे:- मानभूम के राजा मुकुन्द नारायण देव, पाटकुम के राजा शत्रुघ्न दत्त, बाघमुंडी के राजा राधानाथ सिंह, रायुपर और काशीपुर के जमींदार। झालदा का राजा जिसे विद्रोहियों ने जेल से मुक्त कराया उसने विद्रोहियों का साथ न देकर अंग्रेजो का साथ दिया, बदले में अंग्रेजो ने उसे दोषमुक्त कर देने का आश्वासन दिया।

उधर ओक्स ने विद्रोहीयों से निपटने के लिए पंचेत के राजा नीलमणि सिंह से मदद माँगा। लेकिन नीलमणी सिंह खुद अंग्रेजो के विरुद्ध हो गए।

मानभूम के इस विद्रोह में संताल समाज ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। सिद्धी गाँव मे संतालों के एक बड़ी भीड़ ने सभा की। संतालों ने आस पास के गाँव में लूट मचाने के बाद जैपुर के राजा के महल पर हमला किया , राजा की संपत्ति लूट ली साथ ही जैपुर बाजार को भी खूब लुटा। संताल ने रामगढ़ के गोला से मानभूम जिला तक लूटपाट की। नीलमणी सिंह संतालों के प्रत्यक्ष संपर्क में रहा और संतालों की हौसला बढ़ाता रहा। अंततः ओक्स ने सिख सैनिकों के साथ कैप्टेन माउंट गोमरी को संतालो को नियंत्रित करने को भेजा। माउंट गोमरी ने अंग्रेजी अधिकारी पेरी और डेज के साथ मिलकर संतालों को काबू किया। जैपुर इलाका को छोड़कर संताल हज़ारीबाग की और चले गये। धीरे धीरे जैपुर और पुरुलिया में स्थिति सामान्य हो गई। कैप्टन माउंट गोमरी ने नवम्बर 1857 को नीलमणी सिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसे अलीपुर जेल (कलकत्ता) में भेज दिया गया। इस तरह मानभूम में विद्रोह शांत हुआ।

विद्रोह का पलामू में प्रसार

झारखंड में 1857 ई का सिपाही विद्रोह की शुरुआत सबसे अंत में पलामू क्षेत्र में 26 सितंबर 1857 को हुआ। इसके अलावा सबसे अंत मे सिपाही विद्रोह अप्रैल 1859 पलामू क्षेत्र में खत्म हुआ। पलामू में इस विद्रोह का मुख्य नेतृत्व नीलाम्बर शाही और पीताम्बर शाही दो भोगता भाइयों ने किया। भोगता खेरवार जाती की एक शाखा है। नीलाम्बर-पीताम्बर के पिता चेमो खेरवार एक भोगता प्रमुख थे और अंग्रेजो के नीतियों के खिलाफ थे। इसके पिता की जेल में यातनाओं के वजह से मृत्यु हो गई थी। दोनो भाई अपने पिता का बदला लेने की योजना बना ही रहे थे। इसी दौरान 26 सितंबर चकला के भवानी बक्श राय के नेतृत्व में पलामू के चेरो लोगो ने विद्रोह का ऐलान कर दिया। चेरो और खेरवार समुदाय के एक साथ आने से विद्रोहियों की शक्ति बढ़ गई।

21 Ocober 1857 ई को विद्रोहियों ने शाहपुर किला पे आक्रमण किया। इस आक्रमण से अंतिम चेरो राजा चूड़ामन राय की विधवा पत्नी से 4 तोपें छीन लिया। इसी दिन शाहपुर थाना पर हमला किया गया और एक बरकन्दाज को मार दिया। थाने के सारे कागजात जला दिए गए। उसी दिन अंग्रेजो के पिछलग्गू चैनपुर के जमींदार रघुवर दयाल सिंह के कोठी में हमला किया गया तथा धन लुटा गया। इसके एक सिपाही, एक नोकरानी मारा गया। मगर रघुवर दयाल सिंह बच निकला।

22 Ocober 1857 ई को विद्रोहियों ने लेस्लीगंज पे हमला किया। लेस्लीगंज थाना से दरोगा, तहसीलदार, सिपाही सब भाग गए। विद्रोहियों ने थाना, तहसील कचहरी, आबकारी दफ्तर, अंग्रेजो के आवासों पे आग लगा दिया। विद्रोहियों ने मनिका और छतरपुर के थानों को भी लुटा।

जब पूरा पलामू विद्रोह की आग में जल उठा तब लेफ्टिनेंट ग्राहम 5 नवंबर 1857 एक सैनिक टुकड़ी लेकर लेस्लीगंज पहुँचा। विद्रोही चैनपुर भाग गए। 7 नवंबर को ग्राहम चैनपुर पहुँचा। वहाँ विद्रोहियों ने ग्राहम को चैनपुरगढ़ में बंधक बना लिया।

इसी दौरान शाहाबाद (बिहार) के कई विद्रोही भानु प्रताप सिंह के नेतृत्व में पलामू में घुस गए। झारखंड के विद्रोहीयों और बिहार के विद्रोहियों ने मिलकर रंकागढ़ के जमींदार किशन दयाल सिंह, जो अंग्रेजो का सहयोगी था, के भंडारों में आग लगा दिए। 27 नवंबर 1857 को विद्रोहियों ने बंगाल कोल कंपनी के राजहरा कोयला खान में आग लगा दी। खान के मशीनों को उठाकर ले गए। राजहरा कोयला खान पे आग लगाने के बाद ज्यादातर विद्रोही चैनपुर में रह गया और कुछ पलामू किला की और निकल गए तथा पलामू के किले को अपने कब्जे में ले लिया ताकि राँची से आनेवाले सैनिकों को रोक सके।

उधर असहाय लेफ्टिनेंट ग्राहम के मदद के लिए मेजर काटर एक सैनिक टुकड़ी लेकर 8 दिसंबर को सासाराम से शाहपुर पहुँचा। मेजर काटर ने देवीबख्श राय को गिरफ्तार कर लिया। कुछ स्थानीय जागीरदार/जमींदार को लेफ्टिनेंट ग्राहम ने अपने पक्ष में किया। स्थानीय जागीरदार/जमींदार की सेना तथा मेजर काटर की सेना के आने से अब लेफ्टिनेंट ग्राहम की सेना बड़ी हो गई। इसे देखकर कई चेरो जागीरदार विद्रोह से हट गए। का साथ देने के लिए। लेफ्टिनेंट ग्राहम ने कुंडा के जागीरदार परमानंद, जो विद्रोहियों का साथी था, को पकड़ लिया। विद्रोह के सर्वोच्च नेता नीलांबर-पीताम्बर अब भी अंग्रेजो के पहुँच से बाहर था।

छोटानागपुर के कमिश्नर डाल्टन ने मेजर मैकडोनाल्ड को मद्रासी फ़ौज के साथ जनवरी 1858 में लेफ्टिनेंट ग्राहम के सहायता के लिए भेजा। 21 जनवरी को मेजर मैकडोनाल्ड मनिका पहुँचा। मद्रासी फ़ौज के मदद से ग्राहम ने विद्रोहियों से पलामू के किले को छुड़ा लिया। विद्रोहियों के ऊपर अंग्रेजो की भारी सेना अंकुश नही लगा पाई। अंततः डाल्टन को 3 फरवरी 1858 को लेस्लीगंज आना पड़ा। डाल्टन विद्रोह के दमन का पूरा प्लान बनाकर 6 फरवरी को राँची लौटे।

10 फरवरी को ग्राहम ने हरिणामांड गाँव से विद्रोहियों को भगाया। 13 फरवरी को नीलाम्बर-पीताम्बर के गांव चेमो पे तथा 14 फरवरी को सनेया पर ग्राहम ने कब्जा कर लिया। शाहपुर और बाघमारा घाट पे जमे विद्रोहियों को भी तीतर-बितर कर दिया। लेकिन अब भी विद्रोहियों के नेता नीलाम्बर-पीताम्बर विद्रोहियों के हाथ नही आया।

भोगता बंधुओ ने अब शाहाबाद के विद्रोहियों से मदद लिया, शाहाबाद के विद्रोहियों को भी छुपने के लिए जगह चाहिए था। जुलाई में शाहाबाद के 150 विद्रोही पलामू में आये जो धीरे धीरे नवम्बर तक ये संख्या 1100 हो गए। इन विद्रोहियों का नेतृत्व सीधा सिंह और रामबहादुर सिंह ने किया। कुँवर सिंह के भाई अमर सिंह भी 24 नवंबर 1858 को खरौंधी (माझिंगाव, गढ़वा) के पहुँचे। इन विद्रोहियों के पलामू आने से जनवरी 1859 तक पूरे पलामू में विद्रोहियों का नियंत्रण हो गया।

जनवरी 1859 में कैप्टन नेशन को भेजा गया और ग्राहम के साथ मिलकर विद्रोहियों के खिलाफ कार्यवाही करने लगे। फुट डालो और राज करो की नीति के तहत चेरो जागीरदारों को भोगताओ के खिलाफ भड़का दिया। जिससे चेरो अब अंग्रेजो के तरफ से विद्रोहियों के खिलाफ लड़ने लगे। इस तरह नीलांबर-पीताम्बर की शक्ति कम हो गई। 2 सप्ताह के भीतर भोगताओ की शक्ति छिन्न-भिन्न कर दी गई। डाल्टन ने नीलाम्बर-पीताम्बर को पकड़वाने वालों के लिए इनाम और जागीर देने की घोषणा की। अंततः नीलांबर और पीताम्बर गिरफ्तार कर लिए गए। संक्षिप्त मुकदमा के बाद अप्रैल 1859 को लेस्लीगंज में आम के पेड़ पर फाँसी दे दिया गया।

1857 विद्रोह के महत्वपूर्ण तथ्य

1. 1857 ई के विद्रोह में सबसे ज्यादा विकराल रूप सिंहभूम में लिया था।

2. झारखंड में 1857 ई का विद्रोह आरम्भ होने का क्रम

संताल परगना(देवघर) ➡️ हज़ारीबाग ➡️ राँची ➡️ मानभूम ➡️ सिंहभूम ➡️ पलामू

3. 1857 ई के विद्रोह के समय रामगढ़ बटालियन का मुख्यालय राँची में था। इस बटालियन में पैदल सेना, घुड़सवार सेना तथा तोपखाना था। इस बटालियन के दो-तिहाई सैनिक झारखंडी थे, बाहरी सैनिकों की संख्या कम थी। आदिवासी सैनिकों की संख्या भी बहुत कम थी क्योंकि इनमे दारू पीने के आदत के कारण योग्य होने के बाद भी भर्ती प्रतिबंधित थी।

4. विद्रोह के दौरान झारखंड के डोरंडा, चाईबासा, पुरुलिया और हजारीबाग में 8वी नेटिव इनफैंट्री की टुकड़ियां थी।

5. 1857 के विद्रोह में संतालों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। अंग्रेजो का साथ देने वाले लोगो पे गोला, झारपो, मांडर और गोमिया में लूटपाट की। खडागडीहा (गिरीडीह) के पूरे संताल समाज इस विद्रोह में सक्रिय रहे।

1857 Revolt In Jharkhand Part -1

https://youtu.be/tbeaktmK2bo

1857 Revolt In Jharkhand Part -2

https://youtu.be/gHoTtRA_Kcg

1857 Revolt In Jharkhand Part -3

https://youtu.be/JnnLzwGzqIE

1857 Revolt In Jharkhand Part -4

4 thoughts on “झारखंड में 1857 का सिपाही विद्रोह | 1857 Freedom Struggle In Jharkhand

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