Kharwar Tribes
खरवार जनजाति
परिचय – खरवार संताल, उराँव, मुंडा और हो के बाद झारखंड की पाँचवी सबसे बड़ी जनजाति है। ये अपने को उच्च हिन्दू मानते है। खरवार अपने को सूर्यवंशी राजपूत कहते है। इसे खड़गवंशी भी कहा जाता है। खरवारों का मानना है कि उनकी उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व से हुई है। रोहिताश्व को श्राप के कारण देश निकाला दे दिया गया था। वे जंगल में आकर वनवासियों की सहायता से अपना राज्य स्थापित कर लिया। इस दौरान उन्होंने वनवासी स्त्री से विवाह कर लिया और उससे उत्पन्न संतान से खरवार वंश की परंपरा शुरू हुई। एक अन्य मान्यता के अनुसार खरवार लोग मानते हैं कि वे सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। भगवान सूर्य और लक्ष्मी पुत्री सारा के संयोग से भुजबल नामक बालक और जगराम नामक कन्या का जन्म हुआ। यही भुजबल खरवारों का आदिपुरुष था।
स्थान – खरवार का मूल निवास स्थान खेरिझार/खैरागढ़ (कैमूर पहाड़ी) को माना जाता है। इसका मुख्य जमाव पलामू प्रमंडल (पलामू, गढ़वा, लातेहार) में है। इसके अलावे राँची और हजारीबाग में भी पाए जाते है। भारत में इसकी सबसे ज्यादा जनसंख्या झारखंड राज्य में पाई जाती है, दूसरी और तीसरी क्रमशः उत्तर प्रदेश और बिहार की है। 2011 के जनगणना के अनुसार झारखंड के जनजातियों के कुल आबादी का 2.88% है। इसकी जनसंख्या 2,48,974 है।
प्रजातीय वर्गीकरण – यह जनजाति द्रविड़ प्रजातीय समूह के अंतर्गत आते है। खरवार को 18 हजारी भी कहा जाता है। ये झारखंड में पाए जाने वाले 5 राजपूत जनजाति में से है। इस जाती में राउत, मंझिया, खैरी, भोगता, देशवारी, गंझु, दौतलबंदी, दौवलबंदी, पटबंदी, द्वालबंदी उपजातियां पाई जाती है।
भाषा – खरवार की भाषा खेरवारी है जो आस्ट्रिक भाषा परिवार में आता है।
गोत्र – खरवार जनजाति में कई गोत्र और टोटम पाए जाते है जो कांसी (कांस घास), नीलकंठ (भारतीय रोलर), हंसगढ़िया, बेसरा (स्पैरोहॉक), साहिल, तिर्की (चील), चंदियार, लोहवार आदि हैं।
खानपान – ये सुबह के नाश्ता को लुकमा, दिन के भोजन को कलवा तथा रात के भोजन को बियारी कहते है।
सामाजिक व्यवस्था
खरवार समाज पितृसत्तात्मक होता है। एकल परिवार की प्रधानता पाई जाती है। आयोजित विवाह सबसे ज्यादा प्रचलित है जो वधुमूल्य देकर किया जाता है। सेवा विवाह, गोलट विवाह और अपहरण विवाह भी प्रचलित है। समगोत्रीय विवाह वर्जित है। बाल विवाह को प्रचलन है। विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन है जिसे सगाई कहा जाता है। तलाक प्रथा का प्रचलन है।
आर्थिक व्यवस्था
खरवार को पशुपालक जनजाति के श्रेणी में रखा जाता है।खरवारों खेती भी करते है। इसकी बड़ी आबादी खैर वृक्ष के छाल से कत्था बनाने के व्यवसाय में लगी हुई है जो इनके परंपरागत पेशा में से एक है।
धार्मिक व्यवस्था
खरवारों का सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा है। इनके अलावे मचुकरानी, दुआरपार, दक्षिणी, दरहा, चंडी की भी पूजा करते है। सभी हिन्दू देवी-देवताओं पे इनकी गहरी आस्था है। हवन-यज्ञ के लिए ब्राह्मण/पुरोहित की सेवा लेते है, वही बलि चढ़ाने के लिए पाहन की सेवा ली जाती है। खरवारों के धार्मिक प्रधान को पाहन कहा जाता है।
राजनीतिक व्यवस्था
खरवारों के ग्राम पंचायत को बैठकी कहा जाता है। बैठकी का प्रमुख बैगा या प्रधान कहलाता है। अपने सभी विवाद को ये बैठकी में ही सुलझाते है। चार गाँव से मिलकर जो पंचायत बनता है उसे चट्टी कहा जाता है। चट्टी के प्रमुख को “चट्टी प्रधान” कहा जाता है। 5 गाँव से मिलकर बने पंचायत को पचौरा तथा इसके प्रमुख को “पचौरा प्रधान” कहा जाता है। 7 गाँव से मिलकर बने पंचायत को सतौरा तथा इसके प्रमुख को “सतौरा प्रधान” कहा जाता है।
खरवार राजवंश
रोहतास के खरवार राजवंश का दबदबा मध्यकाल में काफी प्रसिद्ध रहा है। 12 वीं से लेकर 16 वीं सदी यानि चार सौ वर्ष तक तक इस राजवंश ने बिहार के एक बड़े भूभाग पर अपना राज्य स्थापित किया। इस राजवंश में प्रताप धवलदेव की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। कन्नौज के गहड़वाल शासनकाल में ये पहले नायक हुए और बाद में महानायक की पदवी प्राप्त की। इसकी पुष्टि प्रताप धवल देव द्वारा जिले के विभिन्न स्थानों पर कई लिखवाए गए शिलालेखों से भी होती है। इनका पहला शिलालेख है, तुतला भवानी या तुतराही शिलालेख। इसके कुछ अंशों को अंग्रेजी काल में पढ़ा गया था। हालांकि यहां के संपूर्ण शिलालेख अभी तक अपठित हैं। प्रताप धवल देव का दूसरा शिलालेख मिला है, तिलौथू प्रखंड के फुलवरिया में। इसकी खोज प्रोफेसर किल्हार्न ने की थी। इस राजवंश में साहस धवल देव सर्व प्रसिद्ध राजा हुए। उन्होंने महानृपति की उपाधि धारण की। साहस धवल देव, प्रताप धवल देव के पुत्र थे। इस राजवंश की शाखाएं पलामू के सोनपुरा से लेकर रामगढ़ तक फैली हुई थी।
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